Tuesday, May 16, 2023

एक्सीडेंट के किस्से- 1

 क्या-क्या याद करूँ !

यहाँ तो सारा बदन टूटा फूटा पड़ा है !

स्कूटर-बाइक से मेरे बहुत एक्सीडेंट हुए, इनमें कई प्राणघातक थे, लेकिन हर बार मैं बिना किसी बहुत बड़ी टूट-फूट या हॉस्पिटलाइज हुए, सुरक्षित बच गया !

पता नहीं क्यों, ईश्वरीय कृपा, लोगों की सद्भावनाएँ या संयोग, क्या रहा, या तीनों रहे !!

एक एक्सीडेंट 1995 में 'LML वेस्पा सेलेक्ट' से बड़ा ही रोचक हुआ था। अपने दोस्तों को सुनाया, तो वे आज भी उसका बतंगड़ बना कर मेरा मजाक उड़ाते हैं ! अविश्वसनीय समझ कर, गल्प समझ कर !

उस साल ईद फरवरी में थी,

मुझे अपने दोस्त के फुफेरे भाइयों की शादी में, दोस्त के साथ सहारनपुर से सिसौली (मुजफ्फरनगर) जाना था। उसके परिवार के लोग भी थे, क्योंकि ईद के दिन सार्वजनिक वाहन नहीं चलते थे अतः दुपहिया वाहनों से जाना सुनिश्चित हुआ। मेरे वाले स्कूटर में मेरे साथ, मेरे दोस्त संजय ने जाना था। 

लेकिन सुबह ही मेरी पड़ोसन आंटी पीछे पड़ गयी, उनका कोई अर्जेंट काम था, शायद कोई बीमार था, उन्हें नकुड़ के पास कहीं जाना था। नाम उनका था कैलाश ! पंजाबन थीं, उनकी सास उनको जब आवाज लगाती, तो 'ओए लाश.. ' सुनाई देता ! विशाल काय डील-डौल, कृष्ण रंग, और रोज शेव बनाती थी, लेकिन आवाज ! आय-हाय ! कंठ इतना सुरीला, कि खाना बनाते हुए किचन से जब तान छेड़ती, "सारंगा तेरी याद में...." तो दिल में एक हूक सी उठती !

मैं भी अगर इधर अपने किचन में होता(मैं पापा के साथ रहता था, वो हफ्ते में एक या दो दिन ही घर पर होते थे) तो खुद को रोक नहीं पाता, और फिर डुएट शुरू हो जाता, एक लाइन वो, एक मैं !

बिल्डिंग में 12 किरायेदार थे, सब झूम उठते थे, मोहल्ले वाले भी सुनते थे !

 खैर, हम अपनी कहानी पर वापस आते हैं। 

 उस दिन ईद की वजह से सार्वजनिक वाहन चल नहीं रहे थे, उन्होंने मुझे नकुड़ छोड़ आने का आग्रह किया। 'न' कहना आज भी मेरे लिए कठिन है, मैं चल भी दिया। उनको नकुड़ से थोड़ा पहले कहीं छोड़ा, फिर सोचा, नकुड़ अपना क्लास फेलो दोस्त अहते शाम उल हक रहता था, उसने बहुत इसरार करके बुलाया था, मैंने सोचा, चलो यहाँ तक आ गया, तो नकुड़ भी हो आऊँ, अहतेशाम भी खुश हो जाएगा। सच में ही वह बहुत खुश हुआ, शीर-कोरमा, सिवइयां खिलाई, बहुत ही स्वादिष्ट ! वो लोग बहुत अमीर और जमीदार टाइप के लोग थे वहाँ के, बहुत आदर सत्कार किया, प्रभावित हुए कि मैं सहारनपुर से स्पेशली उनके बुलावे पर आया। अब मैं उन्हें असली बात क्यों बताता भला !!

जल्दी से वहाँ से निकला, उस समय फोन भी नहीं थे, देर हो गई थी, वे लोग(संजय और फैमिली) मेरा वेट कर रहे होंगे, ये सोच कर खाली सड़क पे स्कूटर पेल दिया, स्कूटर नया था, बड़े भाई का(वो शहर से बाहर थे), फिर वेस्पा सेलेक्ट, बहुत ही शानदार ! "माले-मुफ्त, दिले-बेरहम"

80-100 पे उड़ा दिया !

आगे मुसलमानों से भरी एक बस जा रही थी, उसका ड्राइवर लड़का सा ही था, उसने बिल्कुल भी साइड नहीं दी, बहुत हॉर्न बजाया, लगभग 10 मिनट ये सिलसिला चला। बैक व्यू मिरर में वो हंसता नजर आ रहा था, बाकी सवारियाँ, लड़के लोग भी खिड़कियों से निकल कर मुझे चिढ़ा रहे थे, वो जान बूझ कर ऐसा कर रहे थे। 20 साल की उम्र, जवानी का जोश, नया वेस्पा जो हवा से बातें करता था ! ऊपर से देर हो रही थी !

मैंने जबरन साइड से ओवरटेक करने की ठान ली ! रोड सिंगल थी, साइड में ईंटें बिछी हुई थी, ईंटें, जगह जगह से ऊबड़खाबड़ थीं, गड्ढे पड़े हुए थे। जोश में 80 की स्पीड में ओवरटेक करने लगा, बस का ड्राइवर क्योंकि मस्ती कर रहा था, वो और मेरी तरफ आ गया, और मैं उन ईंटों, गड्ढों में चला गया। गड्ढों की वजह से स्कूटर कई बार उछला, और आखिर में उसका पिछला शॉकर जहाँ चेसिस से जुड़ा रहता है, ईंट से टकराकर वहाँ से उखड़ गया, और स्कूटर की गद्दी बैठ गयी, मैं हवा में उछल गया !

बाय गॉड, मैं इतना ऊपर उछला कि मैं खिड़की से गाड़ी के अंदर झाँक सकता था।

(इसी का मजाकिया किस्सा मेरे दोस्त बना कर सुनाते हैं, हर बार कहानी बढ़ती जाती है, अंशुल ने हवा में ड्राइवर से बात की, ओए, साइड क्यों नहीं दे रहा, ड्राइवर ने जवाब दिया, आदि आदि, ब्ला ब्ला ब्ला !)

स्कूटर काफी दूर जाकर कलाबाजियाँ खाता, एक ओर गिर गया, और मैं बुरी तरह नीचे गिरा !

शुक्र है, बस के नीचे न आया, विपरीत दिशा में गिरा।

गनीमत रही, खेत में हल लगा था, सड़क से बिना किसी गैप के खेत था और खेत में गेहूँ बोने के लिए ताजा हल लगा था, मैं खेत में गिरा।

पसलियाँ ठुक गयी थीं, सारे बदन में हर जगह चोट थी ! लेकिन भुरभुरी मिट्टी ने जान बचा ली, तब हेलमेट भी नहीं होता था,  मौत सुनिश्चित थी !

बस वालों ने खुशी में बहुत जोर का शोर किया, ये मुझे याद है, और बस ये जा और वो जा !

काँखता, कराहता, खड़ा हुआ, मदद करने वाला कोई नहीं था। स्कूटर को देखा, बॉडी टायर से चिपक गयी थी, इंजिन स्टार्ट करके पैदल भी नहीं चल पा रहा था, पिछले हिस्से को हाथ से उठा कर फिर धकेलो, तो सरकता था, वरना बॉडी टायर से चिपक कर ब्रेक लगा देती थी। घायल अवस्था में यह बहुत कठिन कवायद थी। शहर 3 किमी रह गया था, पता नहीं कैसे मैं स्कूटर को खींचता हुआ शहर की सीमा तक लाया, धूप सर पर चमक रही थी। भगवान जाने कितना टाइम हो गया था, न मेरे पास घड़ी थी, न कोई सड़क पर था जिससे टाइम पूछता ! यहाँ लेबर कॉलोनी में एक दोस्त का घर था, स्कूटर वहाँ खड़ा किया, और उस दोस्त की साईकल मांग कर, आवास विकास,(लगभग 12 से 14 किमी) वहाँ जो लोग इन्तजार कर रहे थे, उनको बताने कि मैं नहीं जा सकता शादी में, आप लोग चले जाओ, पहुँचा। इतना चोटिल होने के बाद, कैसे मैंने साईकल चलाई होगी !!

लेकिन वहाँ वे दो दुपहिया वाहन लेकर मेरा वेट कर रहे थे, वे बिल्कुल न माने ! 

नहीं, जाना तो पड़ेगा, ऐसे कैसे !!

एक बाइक 3 सवारी लेकर रवाना कर दी गयी, क्योंकि अब मेरा स्कूटर जा नहीं सकता था ! एक जन बजाज चेतक पर मेरे साथ, साईकल वापस करने वापस लेबर कॉलोनी आया। लेकिन मूर्खता ये कि इस बार भी साईकल मैंने ही चलाई !

सारा शीर-कोरमा निकल गया !!

फिर मेरे रूम पर गए, वहाँ कपड़े बदले, फिर आवास विकास, वहाँ से बजाज चेतक पर तीन लोग ! पेपर मिल वाली रोड से शॉर्टकट से चल पड़े ! सारा रास्ता गड्ढों से भरा, हर गड्ढे पे मेरा दम निकलने को होता, क्योंकि बदन बुरी तरह टूटा-फूटा हुआ था !

रास्ते में क्लच की तार टूटी, पंचर हुआ, फिर ब्रेक फेल हो गया !! हम लोगों को देख डोर से ही चिल्लाने लगते, "हट जाओ, ब्रेक नहीं है !" लोग कूद के हट जाते, और हमें हैरानी से देखते रह जाते ! दो छोटे एक्सीडेंट भी हुए ! एक गन्ने का ट्रक पलटा, जिसके नीचे आते-आते बचे ! फिर एक कस्बे में हिन्दू मिस्त्री मिला, उससे स्कूटर ठीक करवाया, क्योंकि मुसलमानों की तो सब दुकानें बंद थी और इस धंधे में अधिकतर मुसलमान ही होते हैं !

राम राम करते रात में पहुंचे !

सब चिंतित थे !

हम भाती थे, भात लेकर जाना था, दो भाइयों की शादी दो बहनों से हो रही थी।

रात में दर्द के मारे नींद नहीं आयी, खटिया पे करवटें बदल बदल कर दूसरों की नींद भी खराब की, क्योंकि खटिया आवाज करती थी !

कोई दवा न दारू !

अगले दिन टिकैत से भी मुलाकात हुई, जिसने कन्याओं की विदाई में उन्हें 2-2 रुपये के दो नोट दिए ! जबकि बाकी सारा गाँव बड़े नोट दे रहा था, 20 से कम शायद ही किसी ने दिए हों ! उस समय वो हमारे लिए राष्ट्रीय स्तर का आदमी था, उसकी आवाज पूरे देश में सुनी जाती थी ! विस्मय के कारण ये घटना मुझे आज भी याद है !


ये मेरे बहुत सारे रोचक एक्सीडेंट्स में से एक था, जिसको मेरे दोस्त महफिलों में आज भी चाट-मसाला लगाकर सुनाते हैं, और लोग चटकारे लेकर सुनते हैं !!

कभी समय मिला, तो अपने मजेदार एक्सीडेंट्स के और भी रोचक किस्से सुनाऊँगा !!

Friday, May 14, 2021

घ्वीड़ संग्रान्द

 "घ्वीड़ संग्रान्द"

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आज ज्येष्ठ मास की संक्रांति है। लगभग हर मास की संक्रांति को हमारे पहाड़ में किसी न किसी त्योहार के रूप में मनाया जाता है, इस संक्रांति को हमारे क्षेत्र में घ्वीड़ संक्रांति के रूप में मनाया जाता है। घ्वीड़ यानी 'घूरल' को अलग अलग क्षेत्र में, उच्चारण की भिन्नता के कारण कहीं घ्वेल्ड, कहीं घुरड़ आदि नामों से पुकारते हैं, ये पहाड़ी जंगली बकरी की प्रजाति है। हमारे यहाँ घ्वीड़ ही कहते हैं, कन्हैया लाल डंडरियाल जी की पुस्तक "चाँठ्यों का घ्वीड़" में उन्होंने घ्वीड़ शब्द का ही प्रयोग किया है, जिम कॉर्बेट ने अपने साहित्य में हर बार Ghooral लिखा है। यह काकड़ की तरह हिरण नहीं है। ऐसे ही भरल या भरड़ पहाड़ी जंगली भेड़ की प्रजाति है।

पहले इसको कैसे मनाते हैं, इसपर चर्चा करेंगे, फिर करण पर।

जिस प्रकार भारत के अन्य त्योहार फसलों पर आधारित हैं, उसी प्रकार ये भी पहाड़ में रबी की फसल के 'नवाण'(नवधान्य का उद्घाटन)  का त्योहार है। नए गेहूँ को पिसवा कर उसके आटे में गुड़ मिला कर गूंथा जाता है। सख्त गुँथे आटे से घ्वीड़ की आकृति की मूर्तियाँ बनाई जाती हैं, फिर उनपर नई मसूर की आंखें लगाई जाती हैं। पहाड़ में मसूर काले रंग की होती थी, जिसका स्वाद मुझे अब किसी भी मसूर में नहीं मिलता, लोगों ने बीज बचाकर नहीं रखा, और बीज केंद्रों से अब चितकबरी मसूर बोई जा रही है, जिसमें वो स्वाद कहाँ ! विजय जड़धारी जी जैसे लोग बीज बचाओ आंदोलन को पूरी शिद्दत से चला रहे हैं, लेकिन जब खेती बचेगी, तभी तो बीज बचेगा, और खेती तब न बचेगी, जब पहाड़ पर लोग बचेंगे ! 

फिर इनको गुलगुलों के जैसे खिलौनों, यानी घ्वीड़ को नई सरसों के तेल में तला जाता है। पश्चात बच्चों को ये खिलौने दिए जाते हैं। जब तेल की कढ़ाई चढ़ी ही होती है, तो लगे हाथ पिछली संक्रांति की बची हुई 'पापड़ी', (चावल के पापड़) भी तल ली जाती है, स्वांले-पकौड़े भी बना लिए जाते हैं।

घ्वीड़ को मारने के लिए बच्चों की 'किनगोड़' की तलवारें होती हैं। किनगोड़(दारू हरिद्रा, दारू हल्दी, Indian Barberry, Tree Turmeric, वैज्ञानिक नाम- Berberic aristata) एक बहुत ही गुणकारी आयुर्वेदिक औषधि है। हम बच्चे, इस त्योहार के लिए किनगोड़ का बढ़िया सा, सीधा, मोटा तना ढूंढ के रखते थे, क्योंकि ये एक झाड़ी है, अतः इसका तलवार बनाने लायक तना मुश्किल से मिल पाता था। फिर उस समय जलावनी लकड़ी के लिए गाँव के आसपास तो झाड़ियाँ सफ़ाचट्ट कर दी जाती थीं, किनगोड़ का तलवार बनाने लायक तना मिले भी तो कहाँ ! हम एक बार उसे ढूंढ लें, तो सभी दोस्तों से छुपा कर रखते थे, लेकिन त्योहार से कुछ दिन पहले, पता चलता था कि वह तना गायब !! भई अकेले हम ही तो खोजी नहीं थे ! खैर, सभी बच्चे एक से अधिक तने ढूंढ के रखते थे, फिर शुरू होती थी गाँव के बढ़ई की खुशामद ! झंगोरे आदि फसलों की बुवाई का समय होने के कारण एक तो वो सारे गाँव के हल, कृषि यंत्र आदि बनाने, रिपेयर करने में बहुत बिजी रहता था, ऊपर से सारे गाँव की बाल मंडली उसके सर पर, हमसे बात तक करने की उसको फुरसत कहाँ होती थी ! उस समय गाँव में आबादी भी काफी थी, कई-कई भाई बहन और पलायन न होने के कारण सभी परिवार गाँव में रहते थे। खूब रौनक रहती। खैर, बढ़ई ने कभी किसी को निराश किया हो, ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता। त्योहार के दिन तक सभी बच्चों की तलवारें वह बना ही देता था। तलवार तैयार हो जाने की प्रसन्नता का बखान करना संभव नहीं है, यूँ समझ लीजिए कि घनघोर तपस्या के बाद भोलेनाथ से ज्यों पशुपत्यास्त्र पा लिया हो ! तलवार झख पीले रंग की होती थी। इससे हम आपस में नकली युद्ध भी करते थे। एक बात और, तलवार को किनगोड़ की कच्ची लकड़ी से ही बनाया जाता था, शायद आसानी के कारण, फिर उसे छाँव में सुखाते थे, अन्यथा वो फट जाती थी या टेढ़ी-मेढ़ी हो जाती थी।

फुल्यारी के त्योहार के दौरान, हम सभी बच्चे आंगन में अपनी अपनी 'छानी' (बच्चों के खेलने के घर) बनाते थे  जो कि सबकी योग्यतानुसार उनके वास्तुशास्त्र निपुणता के नमूने होते थे, किसी का दो तल्ला, किसी का तीन तल्ला ! इन छानियों पर हम चैत्र मास में रोज सुबह फूल डालते थे। पापड़ी संग्रान्द के दिन उस पर फूल कंडी (फूल कंडी बनवाने के लिए भी टोकरी बुनने वाले हुनरमंद लोगों की उसी तरह खूब चिरौरी करनी पड़ती थी) में पापड़ी रखकर ग्राम देवता के बाद, सबसे पहले चढ़ाते थे, तब ही खाते थे ! घ्वीड़ के गले में रस्सी बांध, उसे अपनी छानी पर ले जाकर, उसकी गर्दन काट कर फिर उन खिलौनों को खाते थे। एक बार मैंने दो तल्ला छानी बनाई थी, उसकी छत पर घ्वीड़ को रखकर,  उसकी गर्दन पर कई वार किए, एक तो तलवार लकड़ी की जिसमें धातु जैसी धार कैसे होती ? ऊपर से घ्वीड़ सख्त आटे का ! जब सफलता नहीं मिली, तो मैंने पूरी ताकत से प्रहार कर डाला ! घ्वीड़ की गर्दन तो पता नहीं कटी कि नहीं, लेकिन जोरदार प्रहार से मेरी छानी ढह गई !! मेरे लिए तो ये बहुत दुखदाई रहा, लेकिन अन्य बच्चों, दोस्तों के मनोरंजन के लिए कई दिनों तक एक चुटकला ही बन गया ! बचपन की एक तलवार शायद आज भी मेरे गाँव में सम्हाली हुई है, उस बार मैं सबसे मोटा तना ढूँढ के लाया था।

इस त्योहार को इस रूप में क्यों मनाया जाता है, इसका कोई तार्किक उत्तर तो मुझे कभी किसी से नहीं मिल सका, लेकिन मेरे स्वयं के विचार से इसमें जौनपुर-जौनसार के 'मरोज' त्योहार की भांति हमारे आदिम समय की यादें जुड़ी हैं, जब हमारे पूर्वज आखेटक हुवा करते थे। 

अब गाँव में न बच्चे बचे हैं, न लोग ! बचे-खुचे लोग किसी तरह बची-खुची परंपराओं को बचाये हुए हैं ! 

हम लोग तो शहरों में सीमेंट कंक्रीट के दड़बों में छुपे हुए अपने रीति-रिवाज, परंपराओं, त्योहारों को भुलाकर पता नहीं किस आधुनिकता का अंधानुकरण करने जा रहे हैं। अंग्रेजी मीडियम स्कूलों में पढ़ने वाले हमारे बच्चे क्रिसमस, मनाने, संता बनने में ही खुश हैं ! नरेंद्र सिंह नेगी की कई वर्ष पूर्व दी गई चेतावनी को हम लगातार सत्य होते हुए बस, बेबस होकर ही देखते जा रहे हैं। "ना दौड़ न दौड़ तैं उंधारी का बाटा" वाले गाने का सार ही यही है, कि जो नीचे चला गया, उसका वापस लौटना बहुत मुश्किल है। तुलना उन्होंने पवित्र हिम से की है, जो गंगा में बहकर, गंदा होकर मैदानों की ओर चल दिया। लेकिन एक आस जिसपर दुनियाँ कायम है, उसी के अनुसार सोचूँ, तो समुद्र में पहुंचने के बाद, फिर से वह पानी बादल बनकर हिमालय पर आएगा, उसी पवित्रता के साथ, और शायद फिर काफी सालों तक वहीं जमा रहे !! बस वक्त की बात है !

----अंशुल कुमार डोभाल

        14/05/2021

Friday, November 3, 2017

ट्रेल्स पास यात्रा, भाग-३, न्यू टिहरी से यात्रा शुरू

    आज सुबह अचानक गर्दन की नस खिंच गयी. सुबह से ही बड़ा दर्द है. इस दर्द ने ट्रेल्स पास यात्रा की याद दिला दी, तो आज तीसरा भाग लिखने आखिरकार बैठ ही गया.
    दरअसल पिछले साल सितम्बर के मध्य में अचानक रात को सोते हुए गर्दन में नस खिंच जिसमे असहनीय दर्द होने लगा. यात्रा के दिन पास आने वाले थे, इस दर्द ने चिंता बहुत बढ़ा दी थी. कई इलाज किये, यहाँ तक कि नाई के पास भी गया. उस दुष्ट ने ऐसा झटका मारा कि दर्द और बढ़ गया. इस दर्द ने यात्रा के दौरान बहुत परेशान किया. विशेषकर टेंट में सोने में.
   जिन पाठकों को ट्रेल्स पास के विषय में जानकारी नहीं है, वे सोच रहे होंगे कि ये ट्रेल्स पास किस्सा आखिर है क्या ?  तो पहले इस पर ही कुछ भूमिका देनी चाहिए थी.

ट्रेल्स पास या पिंडारी कांडा, या पिंडारी कांठा

 ट्रेल्स पास कुमाऊं के बागेश्वर की पिंडर घटी को मिलम घाटी या जोहार क्षेत्र को जोड़ने वाला दर्रा है. प्राचीन काल में यह तिब्बत से मिलम होते हुए बागेश्वर के हाट(बाज़ार) में भोटिया, जोहारी,दारमा आदि लोगों द्वारा व्यापार हेतु यात्रा का मार्ग हुआ करता था. कालांतर में यह मार्ग दुरूह हो जाने के कारण व्यापारियों द्वारा छोड़ दिया गया. 100 साल के बाद इस दर्रे को सन 1830 में बागेश्वर के सूपी गाँव के बूढा मलक सिंह द्वारा पार किया गया. 1830 में ही इस दर्रे को कुमाऊं के प्रथम कमिश्नर जॉर्ज डब्ल्यू ट्रेल द्वारा पार करने की कोशिश की गयी, लेकिन उसे असफलता हाथ लगी. बाद में वह वापस लौटा और इसे फतह किया. 1926 में एक और अंग्रेज Hugh Ruttledge ने इसे पार किया. क्योंकि दुनिया की नज़र में इसे जॉर्ज ट्रेल लाया था, अतः इसके नाम पर इसका नाम ट्रेल्स पास पड़ गया. यह कुछ ऐसा ही है जैसे कि वास्कोडिगामा ने भारत को खोजा. वैसे भी २०० साल की अंग्रेजी दासता के दौर में सभी जगहों के नाम अंग्रेजों के ही नाम पर थे. वैसे इसका वास्तविक नाम पिंडारी कांठा, या पिंडारी कांडा है. यह दर्रा कोई सबसे ऊँचे दर्रों में से एक नहीं है. लेकिन इसकी कठिनता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है, कि इसको सन 1830 के बाद से अब तक, पार करने के 90 प्रयास किये गए, जिनमे से आज तक 17 ही पार कर पाए. हमारा 15 वाँ सफल अभियान दल था. दो दल इसी साल सफल हुए हैं, उनमे एक सेना जैसे संगठन का था, और दूसरा तीन बार के ट्रेल्स पास विजेता ध्रुव जोशी जैसे गाइड और पर्वतारोही के मार्गदर्शन में गया था. यह है तो मात्र 5312 मीटर ऊँचा, लेकिन बहुत ही खतरनाक और कठिन दर्रा है. इस दर्रे को पार करने के लिए दो चीजों की बहुत आवश्यकता है. एक तो टेक्निकल पर्वतारोहण का कम से कम बेसिक नॉलेज, दूसरा मौसम आपका साथ दे. पर्वतारोहण का थोडा बहुत ज्ञान इसलिए क्योंकि इसमें सब कुछ है, ये मात्र एक ट्रैक नहीं है. इसमें ट्रैकिंग है, नदियों को पार करना है, रॉक क्लाइम्बिंग है, इसमें रॉक फॉल है, इसमें आइस फील्ड है, क्रेवास हैं, ऐवलांज है, आइस रेप्लिंग है, मने सब कुछ ! ट्रेल्स पास नंदा देवी और छंगुस पर्वत चोटियों के बीच एक खांच है, एक दर्रा है, लेकिन बिना रस्सियों पर चढ़े न तो चढ़ा जा सकता है, न ही उतरा जा सकता है.

  पिंडारी ग्लेशियर,सबसे अधिक लोग जाते हैं, इसके कई कारण हैं, एक तो यह सबसे सुगम है, वो इसलिए कि मात्र 45किमी के ट्रेक में कई रुकने के पड़ाव, टूरिस्ट बंगलो आदि हैं, अच्छा बना हुआ रास्ता है, खाना रहना मिल जाता है. आप मात्र एक छोटा सा बैग साथ में लेकर मजे से यह ट्रैक कर सकते हैं. दूसरे, पिंडारी के आस पास ही बहुत ही सुन्दर कफनी ग्लेशियर और सुन्दरढुंगा ग्लेशियर है. कफनी कोल से भी मिलम-जोहार की और निकला जा सकता है. पिंडारी ग्लेशियर की यात्रा के दौरान नंदा देवी, नंदादेवी ईस्ट,(नंदा-सुनंदा), नंदा खाट, नंदा घुन्घटी, बलजोरी, छंगुस, आदि पर्वत शिखरों ने नयनाभिराम दृश्यों का आनंद लिया जा सकता है.

यात्रा आरम्भ-

  रात सोते सोते शायद 3 बज गयी थी. सुबह साढ़े 5 बजे उठ गए थे. नहा धो के तैयार हुए, तब तक टीम लीडर नेगी जी और अन्य भी कई साथियों की कॉल आ गयी थी कि जल्दी पहुँचो भाई, 7 बजे उत्तराखंड के पर्यटन मंत्री श्री दिनेश धनाई जी ने यात्रा को फ्लैग ऑफ करना था. सामान वगैरह उठा के बौराडी गोल चौराहे पे पहुंचे. वहां तब तक और लोगों ने फर्स्ट क्लास कुर्सियां वगैरह लगा के कार्यक्रम की तैयारी कर रखी थी. दो टाटा सूमो खड़ी थी, उनमे सामान डाला. होटल में नाश्ता बना था, अभी मंत्री जी के आने में थोडा समय था, तो लगे हाथ मैंने दो परांठे निगल लिए. मंत्री जी आये 15 मिनट का उनका कार्यक्रम हुआ, उन्होंने दो शब्द कहे, शुभकामनाएं दीं, झंडा लहराया, और यात्रा चल पड़ी. चौराहे पर काफी लोग जमा हो गए थे. 8 बज गए थे तो स्कूल बस और काफी ट्रैफिक हो गया था. बहरहाल, काफी सारे लोग हमारी इस यात्रा के गवाह बने थे.
   गोरखे मजे से आगे की सीटों पर बैठे हुए थे, उन्हें डांट कर पीछे भागना पड़ा. मूर्ख से, कोई कह रहा मुझे उलटी होती है शाब ! जैसे गाड़ी का किराया देकर कहीं सफ़र करने जा रहे हों और अपनी पहले आओ पहले पाओ के आधार पर अपनी पसंद की सीट हथिया लो !
  अगला पड़ाव श्रीनगर था जहाँ से कुछ सामान लेना था, टमाटर प्यूरीऔर किसी को शायद कुछ दवाइयाँ आदि. लेकिन मुझे न्यू टिहरी से ही सरदर्द आरम्भ हो गया था, रात को नींद पूरी न होने की वजह से. मैं चुपचाप आँखें बंद किये बैठा रहा. श्रीनगर पहुँचते पहुँचते पेट में भी दर्द होने लगा था. अलसर दर्द कर रहा था जो कि चिंता की बात थी. ये मैं अनुराग के अलावा किसी को बताना नहीं चाहता था, मेरी यात्रा खटाई में पड़ सकती थी. कर्णप्रयाग से आगे कहीं मच्छी-भात खाने की बात हुई थी, लेकिन गाड़ियों में आपसी सामंजस्य न होने के कारण, दूसरी गाडी पता नहीं कहाँ रुकी, हमने एक जगह गाड़ी रोक कर सादा खाना खा लिया था. खाना खाने से दर्द तो हल्का हुआ था, लेकिन मुझे पता था कि थोड़ी देर में पेट खाली होते ही दर्द फिर से तेज हो जायेगा. दवाइयाँ बैग में थीं, और बैग सूमो की छत पर बंधे थे. थोड़ी देर फिर सोने की कोशिश कर ही रहा था कि टायर ही पंचर हो गया. सड़क बहुत ख़राब थी, सड़क के चौड़ी करण का काम चल रहा था. आगे एक जगह रुक करके फिर पंचर भी बवाना पड़ा. लगभग एक घंटा ख़राब हुआ. ग्वालदम से आगे एक बार फिर गाड़ी में पंचर हुआ, फिर पंचर लगवाया. शाम होने लगी थी, अभी मंजिल बहुत दूर थी, अभी तो बागेश्वर भी नहीं आया था, फिर कपकोट, और तब कहीं लुहार खेत था.
  ओह !
लैपटॉप की बैट्री जाने वाली है, अब शेष फिर लिखूंगा ! एडिट भी बाद ही में होगा, शुभरात्री !

Thursday, October 12, 2017

ट्रेल्स पास यात्रा, भाग --2, "देहरादून से यात्रा आरम्भ"


    संजय सेमवाल जी जीप अड्डे, रिस्पना पुल,देहरादून में इंतजार कर रहे थे. जीप में सीट भी रोक ली थी. संजय सेमवाल जी, जिन्हें आगे पोस्ट्स में संजू कहा जायेगा, उत्तराखंड शिक्षा विभाग में लेक्चरार हैं, सम्प्रति हरिद्वार में सर्व शिक्षा अभियान के जिला समन्वयक हैं. 21 साल पुराने दोस्त हैं और हमने कई यात्राएं साथ में की हैं.
  यात्रा की उत्कंठा में हमारा बातों का सिलसिला शुरू हो गया था. जीप चल पड़ी थी. मुझे जब भी किसी वाहन से, जिसे मैं खुद न चला रहा होऊं, (और ऐसा अवसर कम ही मिलता है), लम्बी दूरी की यात्रा करनी हो, तो मैं सोने का अवसर नहीं गवाना चाहता. और आनंद भी आता है, यह बात दीगर है कि यात्रा की समाप्ति पर गर्दन और एकाध जगह से खोपड़ी भी, दर्द कर रहे होते हैं. लेकिन आज नींद कोसों दूर थी. इसी की चर्चा करते रहे कि कैसी जगह होगी ! कहाँ कहाँ से जाना होगा ! क्या क्या कठिनाइयाँ होंगी ! आदि आदि! एक बात संजू को और परेशान कर रही थी कि उसकी छुट्टी स्वीकृत नहीं हुई थी. अधिकारी ने जान बूझ कर टांग अड़ा दी थी. उसका झगडा हो गया था, और वह बिना छुट्टी स्वीकृत कराये ये कह के आ गया था कि जाऊँगा तो मैं जरुर, तुमसे जो होगा वो कर लेना ! उसने आते समय मन्नत मांगी थी कि हे भगवान ! वापस आकर मैं इस अधिकारी की सूरत न देखूँ, और वाकई में उसकी दुआ में असर था या जाने संयोग, वापसी में जब हम फोन के नेटवर्क में आये, उसे सबसे पहले यही खबर मिली कि उस अधिकारी का तबादला हो गया है !
  नई टिहरी पहुँचने पर अनुराग मिला, अनुराग पन्त भी 20 साल पुराना, घनिष्ठ मित्र है, और हमने अधिकतर यात्राएं साथ में की हैं. हमको वो उस होटल में ले गया जहाँ सब ने इकठ्ठा होना था और अगले दिन यहीं से रवानगी होनी थी. उत्तरकाशी से 8 पोर्टर आ चुके थे. इनमे 1 उत्तरकाशी का, और 7 गोरखे थे. कुछ साथी वहाँ बैठे थे, लेकिन अभी परिचय नहीं था. ग्रुप लीडर से मैं एक बार मिल चुका था पहले. शिव सिंह नेगी जी, उम्र 58 साल,  'हितम' (हिमालयन ट्रेकर्स एंड माउन्टेनियर्स) के संस्थापक. जवानी से अब तक न जाने कितने ट्रेक, कितने अभियान, कितने पर्वतारोहण कर चुके हैं. जिस होटल में हम एकत्र हुए थे, इसके मालिक सुरेन्द्र सिंह राणा जी भी हमारे दल के वरिष्ठ सदस्य थे. ये भी करीब 56 साल के हैं और इनको भी बहुत अनुभव है. कुछ साथी रूडकी से हमें सिर्फ सामान पहुंचाने टिहरी आये थे. इनका ट्रेक पर जाना संभव नहीं हो पाया था. ये लोग तुरंत ही वापस भी चले गए थे. नेगी जी ने, पोर्टरों को लाइन अप किया और उनकी ब्रीफिंग की. उनका एक्स्पीरिएंस पूछा. उत्तरकाशी वाला तो था ही प्रोफेशनल, लेकिन बाकी गोरखों ने बताया कि वो केदारनाथ, निम (नेहरु इंस्टिट्यूट ऑफ़ माउंटेनियरिंग)  के साथ भी गए हैं. एक गोरखा कालू, जो जवान छोकरा था, जादा से जादा 20-21 साल का, कह रहा था कि उसने कालिंदी और एवरेस्ट बेस कैंप कर रखा है. उस समय तो यकीन न करने का कोई कारण नहीं था, लेकिन बाद में ट्रैक पर उसकी हरकतों से मुझे संदेह सा हुआ. उनको अडवांस पैसा दे दिया गया था, अतः नेगी जी ने उनसे कहा कि, जिसके पास चश्मा और ढंग का जूता नहीं है, अभी बाज़ार जा के ले आओ. गोरखे बाज़ार चले गए. हम लोग यात्रा के सामन पैकिंग में लग गए. कार्य प्रभार बाँट दिए गए, किसी को राशन का संभालना था, किसी को टेंट आदि, तो किसी को टेक्निकल सामान का. लगभग 2 से 3 घंटे तक पैकिंग का काम चलता रहा. फिर हम भी बाज़ार गए, ज़रूरी दवाएं आदि लीं, कुछ और छूटा-पूटा सामान लिया. उसके बाद होटल में मीटिंग हाल में मीटिंग हुई. पहले सब लोगों का आपस में परिचय हुआ. फिर सभी ने कुछ न कुछ कहा. नेगी जी ने कहा कि भई अगर किसी भी मेंबर को कोई भी प्रॉब्लम है, तो निस्संकोच अभी बता दे. बाद में अगर किसी को कोई दिक्कत हुई, तो एक आदमी की वजह से अभियान फेल नहीं होना चाहिए. किसी को दिक्कत नहीं थी. हाँ लेकिन मुझे थी. सोचा कि बता दूँ ? अनुराग को चुपके से बताया, उसने कहा कि चुप ही रह. दरअसल पिछले कुछ दिनों से अल्सर दर्द कर रहा था. जिसकी मैं करीब 15 दिन से दवाइयां खा रहा था. दूसरा एक और पसलियों के नीचे कहीं अंदरूनी भाग में दर्द हो रहा था, मैं अल्ट्रासाउंड भी करवा आया था, लेकिन रिपोर्ट नार्मल थी. काफी देर विचारों का आदान प्रदान हुआ, फिर गुड नाईट हो गयी. कुछ लोग होटल में ही रुके थे, कुछ अपने घर चले गए थे. संजू अपनी पत्नी के पास चम्मा चला गया था. मैंने अनुराग के घर रुकना था, क्योंकि अभी हमें अपनी पर्सनल पैकिंग भी करनी थी. मुझे अपने पैकिंग में अनुराग की जरुरत थी, क्योंकि मैं कभी भी सामान कम नहीं कर पाता. वहाँ भी मैं बहुत सामान ले गया था, जिसमे आधा टिहरी छोड़ना पड़ा.
   पैकिंग में हमें शायद 2 बज गए थे. नींद का समय बीत चुका था, अतः काफी देर तक नींद नहीं आई. अगर ढाई बजे भी आई होगी, तो सुबह साढ़े 5 का अलार्म था. 7 बजे रवानगी थी. पर्यटन मंत्री ने फ्लैग ऑफ करना था, अतः वहां पे कुछ तैयारियां भी करनी थी. नींद के आगोश में आते ही पर्वतारोहण शुरू हो गया था. जो सामान मैंने पैकिंग करते समय आज पहली बार देखा, तरह तरह की रोप, कैरीबिनर, आइसबूट, क्रेम्पोन्स, गेटर्स आदि, उन्हीं समस्त अस्त्र-शस्त्रों से लैस मैं वर्टिकल लिमिट मूवी की भांति हिमालय में रस्सियों से लटका हुआ था !!!! और गिरता जा रहा था, गिरता जा रहा था, अंतहीन गहरे गर्तों में !!!!

(जारी.....)
अगला भाग......शीघ्र ही.....
                                           अनुराग पन्त और मैं ट्रेल्स पास पर(ऊपर)
                                          संजय सेमवाल और मैं ट्रेल्स पास पर(ऊपर), नीचे मैं.

Saturday, October 7, 2017

ट्रेल्स पास यात्रा, (Traill's Pass Expedition 2016 )

ये यात्रा पिछले साल की थी. जैसा कि हमेशा ही होता आया है ! मुझ आलसी को, यात्रा से वापसी में तो बड़ा जोश रहता है, कि इस बार ये यात्रा लिखनी है, और पिछली भी सारी लिख डालनी है, लेकिन हर बार टांय टांय फिस्स ! किसका लिखना, किसका कुछ, जिंदगी अपने घिसे पिटे ढर्रे पर फिर घिसटने लगती है, और फिर वही--
एक बार मैंने टिहरी में अपने एक बुजुर्ग भाईसाहब को पूछा था, कि ''और भाईसाहब, क्या हो रहा है'', तो उन्होंने बड़ा ही खूबसूरत शायराना ज़वाब दिया था !-
"सुबह हो रही है शाम हो रही है,
ज़िन्दगी यूँ ही तमाम हो रही है !''

और अगली बार मिलने पर जब उन्होंने पूछा था कि, ''और भई, क्या हाल हैं ?"
तो हमने भी उसी अंदाज़ में पलट वार किया था--
'वही हड्डी है, वही खाल है"

पिछले साल की बात है, शायद अप्रैल या मई में अनुराग ने ट्रैक के बारे में पूछा था, कि शिव सिंह नेगी भाईजी एक ट्रैक का प्लान कर रहे हैं, वहां चलें क्या ? मैंने पूछा था कि कौन नेगी जी ? तो उसने बताया था कि अरे यार वही, जिन सीनियर लोगों की मैं बात करता रहता हूँ, कि जिनका एक ग्रुप है और जो लोग जाते रहते हैं. अच्छा अच्छा कह कर मैंने उदासीनता से बात को आई गयी कर दिया था.
    यात्रा की ये विशेषता है. घुमक्कड़ी के कीड़े को जिंदा रखने के लिए आपको हर साल कम से कम दो बार कहीं जरुर निकलना चाहिए. यदि एक साल खाली निकल गया, तो ये कीड़ा भी कहीं दिमाग में गहरे जाकर सो जाता है, और फिर जगाने से भी आलस में अलसाया उठेगा और कोई रूचि नहीं दिखायेगा.
  मेरा एक साल फालतू चला गया था. राज जात मैं जा नहीं सका था. अगर आपदा न आती  और सही समय पर राज जात हो गयी होती, तो मैं तो उसका 12 साल से इन्तजार ही कर रहा था ! 2012 में जब होनी थी, तब मल मास(अधिक मास ) के कारण नहीं हुई थी, और 2013 में समूचे उत्तराखंड में आई आपदा के कारण स्थगित हो गयी थी. उन दोनों साल पूरी पूरी तयारी थी. 2012 में तो हमने फिर भी खतलिंग-मासरताल कर लिया था. लेकिन 2013 भी ऐसे ही चला गया. 2014 में फिर से पूरी तैयारियां की, जून में 10 किलो वज़न घटाया, लेकिन दो कारण हो गए, जुलाई में घुटनों में बहुत दर्द हो गया, डॉक्टर ने कहा भले मानस ! दौड़ने की क्या ज़रूरत थी, सिर्फ तेज चाल में पैदल चल के भी तो वर्कआउट किया जा सकता था ! दूसरा, उन्ही दिनांकों को पंचायत के उपप्रधानों के चुनाव में ड्यूटी लग गयी ! और 15 अगस्त 2014 में हमारे यहाँ आई आपदा के कारण पूरी सड़क बह गयी थी, 12 किमी पूरा पैदल चलना था. मित्रमंडली चली गयी थी, और मुझे कहा गया था कि तुम हमसे बाद में आके मिल जाना. मैं चुनाव ड्यूटी से आकर जा सकता था, कागज-पत्तर कोई साथी भी जमा करवा सकता था, निर्वाचन निर्विरोध हुआ था, अतः कोई टेंशन की बात नहीं थी. मशहूर घुमक्कड़ और हिंदी के यात्रा ब्लॉगर, संदीप पंवार जाट देवता से संपर्क भी हुआ, उन्होंने कहा भी कि मैं लेट निकल रहा हूँ और यात्रा को बेदनी में पकड़ लेंगे, चले चलो ! लेकिन घुटनों के दर्द और घरवालों के दबाव के कारण मैं पीछे हट गया.  इस तरह मैंने वह अवसर गवांया जिसका मुझे 14 साल से इंतजार था, और 2026 में शायद मैं इतना फिट रहूँगा भी नहीं कि इतनी कठिन यात्रा पर जा भी सकूँ !
  तो जब जुलाई में अनुराग ने फिर संपर्क किया कि फोटो और ID दो, यात्रा की परमिशन के लिए अप्लाई करना है, तो मैंने अनिश्चय की स्थिति में दे भी दिया. पैसे उसने खुद ही जमा कर दिए थे. कुछ दिन बाद जब अनुराग ने बताया की 12 लोगों की परमिशन आ गयी है, मैं तब भी श्योर नहीं था, क्योंकि मुझे लगता था कि घरवाले बिलकुल भी नहीं जाने देंगे ! फिर भी 15000 जमा करवा दिए थे.
  परमिशन आने के बाद पहले माँ से भूमिका बनाई, कि ऐसे ऐसे करके मेरा चयन हुआ है, और मुझे जाना है, तो आश्चर्यजनक रूप से उन्होंने इजाजत दे दी, कि यदि तुम इस ऐतिहासिक अभियान को कर पाते हो तो मुझे तो अपने बेटे पर गर्व ही होगा . अब मुख्य समस्या श्रीमती जी की अनुमति की थी. खतलिंग यात्रा संपन्न होने के बाद तो उन्होंने पूरा ड्रामा रच दिया था. फिर ये तो उससे भी खतरनाक अभियान था ! लेकिन अभियान की खतरनाकता का तो उन्हें कोई अंदाज भी नहीं हो सकता था, क्योंकि उन्हें तो इस बात पर भी आश्चर्य होता है, ऐसी जगह भी कोई हो सकती है, जहाँ फोन के सिग्नल नहीं होते ! खैर एक दिन अच्छे मूड में देख कर डिटेल बता ही दी कि 10 दिनों के लिए हिमालय पर जाना है. पता नहीं कैसे उस दिन उनका मूड इतना अच्छा था कि उन्होंने भी इजाज़त दे डाली कि, "जा सिमरन जा ! जी ले अपनी ज़िन्दगी !" शाहरुख़ खान की एक फिल्म में एक डायलॉग भी था शब्दशः तो नहीं पर कुछ कुछ ऐसा ही था शायद, "अगर तुम किसी चीज को शिद्दत से चाहोगे तो पूरी कायनात तुम्हें उस शै से मिलाने में जुट जाएगी"
  बस ! फिर क्या था ! उस दिन से तो दिल बल्लियों उछलने लगा ! हर समय बस एक ही आशंका लगी रहती कि ऐन समय पर ऐसा कुछ न हो जाय जिससे जघ्न में विघ्न हो जाय ! डिपार्टमेंट से स्पेशल कैजुअल लीव के लिए अप्लाई भी कर दिया था, छुट्टी स्वीकृत भी हो गयी थी. थोडा थोडा करके खरीददारी भी कर डाली थी. लेकिन फिर ऐन समय पर एक दिक्कत आन ही पड़ी ! हुआ यूँ कि बड़े भाई किसी काम से दिल्ली आये थे तो परिवार से मिलने, देहरादून भी चले आये. उनको वापसी के लिए रेलगाड़ी में छोड़ने जाना था कि अचानक अनुराग का फोन आ गया कि टीवी खोल के फलां चैनल को देखो, हमारी यात्रा के बारे में आ रहा है. चैनल लगाया तो शिव सिंह नेगी भाई जी के इंटरव्यू पे आधारित एक न्यूज़ रिपोर्ट आ रही थी कि ऐसे ऐसे करके एक अभियान दल ट्रेल्स पास पर जाने वाला है. और न्यूज़ चैनल अपनी रिपोर्ट की रोचकता को बढ़ाने के लिए न जाने कहाँ कहाँ से, इन्टरनेट के वीडियो डाल रहा था, जिनमे ग्लेशियर टूटते हुए दिखा रहा था, ऐवलांज आदि दिखा कर उसने विडियो को काफी डरावना बना दिया था, जिसको देख के घरवाले डर गए.
   खैर, हुआ जी, जैसे भी हुआ ! लास्ट वाले दिन की खरीददारी करने तो श्रीमती जी भी साथ गयी थी, उस दिन जूते कपड़े, स्लीपिंग बैग, टेंट आदि लिए थे. जूता 5000 का ले लिया लेकिन वो गलत सौदा ही साबित हुआ. उससे पहले भी एक फौजी लॉन्ग बूट लिया था लेकिन 2 घंटे पहन के ही नानी याद आ गयी थी !
     मेन समस्या चश्मे की आ रही थी. जो स्नो ग्लासेज बाज़ार में उपलब्ध थे, वो नजर के नहीं हो सकते थे, और ऐसा चश्मा मिल नहीं रहा था जो हमारे नज़र के चश्मे के ऊपर चढ़ सके. नज़र का चश्मा फोटोक्रोमैटिक तो था, मगर सामान्य धूप के लिए. बर्फ की चमक से बचने को तो बर्फ के लिए स्पेशल बना चश्मा ही चाहिए था ! काफी दुकानों पे भटके. दोनों बच्चे साथ थे जो थक कर, बोर होकर परेशान हो गए थे, और हमें भी परेशां कर रहे थे. फिर घंटाघर की एक दुकान पर एक चश्मा मिला, जिस पर चुम्बक से एक बाहरी चिपकाने वाला काले लैंस का अटैचमेन्ट था, जिसे जब चाहो लगा लो, जब चाहो हटा लो ! तुरंत बनवाने को दे दिया, हालाँकि साढ़े चार हज़ार का था और मैंने इतना मंहगा चश्मा कभी पहना ही नहीं था. लेकिन इसका एक फायदा था कि इसने सामान्य तौर पर भी काम आना था. अनुराग को फोन करके पूछा तो उसने भी तुरंत सहमति दे दी कि मेरे लिए भी एक बनवा दो. बाई चांस दूकानदार के पास दो ही पीस थे. लेकिन अनुराग के  चश्मे का नंबर चाहिए था. वो उस समय नई टिहरी बाज़ार में था और पैदल था ! फिर वो घर गया, बड़ी मुश्किल से नंबर ढूंढा, मुझे व्हाट्सऐप किया. इतनी देर मैं सपरिवार दुकान पर ही बैठा रहा. बच्चे भी परेशां हो गए और दूकानदार भी, उसे भी घर जाना था, रात के 9 बज चुके थे. चश्मा आज ही बनने को देना था, ताकि कल मिल सके. श्रीमती जी को ये चिंता थी कि घर पर पापाजी भी हैं, उन्हें भूख लग गयी होगी ! फिर खाना भी बाज़ार से बनबनाया ही ले जाना पड़ा. अगले दिन शाम को चश्मे तैयार मिल गए थे. कुछ सामान अनुराग ने और भी बताया, वो भी बाज़ार से ले लिया था. अब अगले दिन का इंतजार था. रविवार के दिन का, जब मुझे और संजय सेमवाल को देहरादून से टिहरी पहुंचना था. वहीँ पूरी टीम ने मिलना था. उनके निर्देश थे कि सुबह सब जल्दी पहुंचें, क्योंकि पैकिंग भी करनी थी, अन्य तैयारियां भी करने को थी.
  राम राम करके रात गुजरी ! नींद किसे आनी थी ! रात रात भर तो गूगल मैप देखता रहता था, उस जगह को समझने की कोशिश करता रहता था. रोमांच के कारण दिल धाड़-धाड़ बज रहा था. मैं अपने स्कूल से सारा हिसाब-किताब सब सहायक अध्यापक को समझा के आ गया था. स्कूल से निकलते समय मैं भी जरा भावुक सा हो रहा था, हो सकता है दुबारा इस स्कूल को, इन बच्चों, सहकर्मियों को मिल पाऊं या नहीं ! कौन जाने !
  सुबह बहिन और उसका पति नाश्ते पर मिलने आने वाले थे. वो जयपुर घूम के आये थे, तब से मिले नहीं थे. वैसे वो लोग शाम को आने वाले थे, फिर उन्होंने जब सुना कि मैं यात्रा जा रहा हूँ, तो सुबह ही मिलने आने का प्रोग्राम बना दिया था. लेकिन जब वो लोग साढ़े ग्यारह बजे तक नहीं आये, तो मुझे निकलना पड़ा. इसी बात का आजतक अफ़सोस है, ताजिंदगी रहेगा ! काश मैं 15-20 मिनट और रुक जाता ! सबको लगता था, और मुझे भी कि, मैं लौटूं न लौटूं ! हो सकता है ये आखिरी दर्शन हों ! लेकिन मैं कपिल(बहनोई) को आखिरी बार सही सलामत न देख पाया. जब लौटा तो वो ICCU में था, बेहोश ! और फिर वहां से उसका मृत शरीर ही बाहर आया !
      संजू का फोन आ गया था, और वो जीप अड्डे पर इंतज़ार कर रहा था. श्रीमती जी ने जीप अड्डे पर छोड़ा, दोनों की आँखें भर आईं थीं ! कहते हुए उनका गया रुंध गया था, "अवनी के पापा, आप जा तो रहे हो लेकिन......" इससे आगे वो न कह पाई !
  कैसी विडम्बना है ! दैव क्या कर देता है, हम सोच भी नहीं सकते ! मैं उतने खतरों से खेलने जा रहा था, जहाँ, पल-पल, पग-पग पर मौत थी ! लेकिन इन्सान ये भूल जाता है कि मौत तो सब जगह है, उसके लिए क्या घर, क्या हिमालय ! मैं तो वहां से सही सलामत लौट आया जहाँ कुछ हो जाता तो कोई साधन न था, एक मात्र मेडिकल किट भी गोरखे ने गिरा दी थी, लेकिन कपिल सर्व सुविधा संपन्न हॉस्पिटल से सलामत न लौट पाया !

कपिल को गए भी साल होने को आया ! पिछले साल 29 अक्टूबर, दीवाली पर. अभी भी यकीं नहीं होता. लगता है वो हमारे साथ ही है आज भी. तुम हो न हो ! तुम्हारी यादें तो हमेशा साथ रहेंगी ! विनम्र श्रद्धांजलि !
    (बाकी दूसरे दिन,   शुभ रात्री !)
अगले लेख में--- ट्रेल्स पास के बारे में, यात्रा की तैयारियाँ, और यात्रा का पहला दिन, नई टिहरी से लुहारखेत DAY - 1......

Saturday, November 5, 2016

'अथातो घुमक्कड़ अभिलाषा"

                                                                  चैरेवेति चैरेवेति
                                                                 --------------------
   मनुष्य ने घूमना कब आरम्भ किया होगा ?
शायद मनुष्य बनने से पहले जब वो कपि था. बंदरों कि टोली ज्यों एक जगह से दूसरी जगह घूमती रहती है !
या फिर उससे भी पहले जब वो परिंदा था ! शायद ही परिंदों से जादा घुमंतू कोई और हो ! उनके परों का विकास भी शायद उनकी इस घूमने कि अभिलाषा के ही कारण हुआ हो ! दूर साइबेरिया से हजारों किलोमीटर दूर  भारत और अन्य देशों में पहुंचना, फिर लौटना, इतनी बड़ी यात्रा में क्या क्या नहीं देखने को मिलता होगा ! इस प्रवास में तो किसी की जीवन यात्रा ही ख़त्म हो जाती होगी ! हाल ही में पक्षी विज्ञानियों ने पता लगाया है कि एक छोटा सा बाज, भारत के उत्तरपूर्वी राज्यों से अफ्रीका तक प्रवास करने जाता है ! लियो नार्डो दा विन्ची , राईट बन्धु, और कई और वैज्ञानिकों ने शायद इसी घूमने कि इच्छा के कारण पक्षियों कि भांति उड़ सकने लायक मशीन बनाने कि दिशा में प्रयास किये होंगे !
   मनुष्य का आरंभिक घूमना, पशु-पक्षियों कि भांति जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं कि पूर्ति के लिए रहा होगा. लेकिन पशुओं में भी सब इच्छाओं की पूर्ति के बाद भी घूमने कि प्रवृत्ति पाई जाती है, अन्यथा आपका पालतू डौगी क्यों बार बार बाहर घुमाने ले जाने की जिद करता है ? इसी प्रकार एक छोटा सा ६ माह का बच्चा भी आपसे बाहर घुमाने कि अपेक्षा करता है, और इससे उसे ख़ुशी मिलती है !
    आरंभिक मानव जब आदिमानव था, गुफाओं में रहता था तो उसका एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना, जरुरत थी. भोजन, मौसम, प्राकृतिक घटनाएं आदि के कारण वो भटकता था. बाद में जब वो पशु-चारक बना तब भी, पशुओं के चारे के कारण उसे लम्बे प्रवास करने पड़ते थे, आज भी गडरिये इसका उदहारण हैं. लेकिन इन लम्बे प्रवासों के कारण जगह जगह भटकने के कारण, प्रकृति की विविधताओं, सौन्दर्य, रहस्यों के कारण, घूमने कि उत्सुकता उसके स्वभाव में सम्मिलित हो चुकी थी. वरना अपने चारागाहों के अतिरिक्त उसने अन्य जगहें क्यों छानी ? वो पशुचारक ही हैं जिनकी वजह से आज हमें तमाम पहाड़ों, दर्रों, चोटियों, ट्रैकों, नदियों के उद्गम स्थलों-ग्लेसियरों, नदी-घाटी, रेगिस्तानों, मैदानों, आदि आदि का ज्ञान है.उन्ही के साथ जाकर या उन्हीं के बनाये रास्तों पे चलकर ही महान लोगों ने एवरेस्ट और अन्य महत्वपूर्ण जगहों की खोज की. चाहे वो सिकंदर रहा हो, गजनवी, गौरी, तैमूर, चंगेज खां, ह्वेनसांग, फाह्यान, मेगस्थनीज, इब्नबतूता, या तमाम धर्म प्रचारक, गड़रियों के बताये रास्तों पे चलकर ही आज इतिहास में अमर हैं.
   मनुष्य के पशुचारक से बाद में कृषक बन जाने के बाद भी घूमने की प्रवृत्ति नहीं गयी ! क्योंकि अब तो हजारों पीढियां हो जाने के बाद वह जीन में आ गयी होगी, जीव विज्ञान के सिद्धांत "उपार्जित लक्षणों की वंशागति" के अनुसार. कालांतर पर जब व्यापार शुरू हो गया, तो व्यापारियों द्वारा अपने देखे हुए मुल्कों के किस्से सुनाने पर घूमने के शौकीनों की अभिलाषा और बलवती होती गई होगी ! और घूमने के शौक़ीन लोग उनके साथ नौकर बनकर या अन्य किसी तरीके से घूमने निकल पड़ते !
   सम्पन्नता के साथ अपराध का जन्म स्वाभाविक है, इन व्यापारिक मार्गों के आस पास लुटेरों का प्रकोप बढ़ता गया. देश बनते गए. पुर्तगाल जैसे देशों,जिनके पास समुद्र के अतिरिक्त  स्थल मार्ग से अन्य दुश्मन देशों की सीमायें ही थी, व्यापार का अन्य कोई रास्ता न था, ने समुद्री मार्गों की खोज की. भारत का भी प्राचीन नौपरिवहन काफी समृद्ध था. उन व्यापारियों की भी सच्ची झूठी कहानियों से प्रेरित हो कई लोग घूमने निकले. जैसे सिंदबाद की कथा.
    यही घूमने की अभिलाषा, जिसे महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने घुमक्कड़ी नाम दिया, किसी में कम किसी में जादा, लेकिन सबमे होती है. राहुल सांकृत्यायन जी स्वयं एक महान घुमक्कड़ थे. इसी अभिलाषा के कारण ही वो इतने विद्वान बन पाए, उन बौद्ध धर्म ग्रंथों के उद्धारक बन पाए जो नालंदा तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों के जलाकर नष्ट कर दिए जाने के कारण विलुप्त हो गए थे, विश्व की ३६ भाषाओँ के ज्ञांता बन पाए. यही है जिसके कारण मानव इतना विकास कर पाया. यही है जिसके कारण मानव आज इस पृथ्वी का राजा है, चप्पे चप्पे पर विद्यमान है, और अंतरिक्ष को भी विजित करना चाहता है ! यही है जिसने सभ्यता, संस्कृति, धर्मों को फैलाया ! और यही है जिसके कारण आज पूरा विश्व एक है !
तो मेरे घुमक्कड़ मित्रों !
घुमक्कड़ी जिंदाबाद !
लगे रहो, घूमते रहो, चैरेवेति, चैरेवेति !

आज अपना यात्रा ब्लॉग शुरू करने जा रहा हूँ. इस कार्य हेतु सभी वरिष्ठ ब्लागरों, यात्रा संस्मरण लेखकों का आशीर्वाद चाहता हूँ. ५ साल से तमन्ना थी, जो मेरे जैसा आलसी प्राणी आज शुरू कर पाया। अब अगली पोस्ट जल्द डालने का प्रयास करूँगा.
तब तक आप घूमते रहें और बस घूमते रहें !
१९ वीं सदी के पहले दशक में यू पी (आज का उत्तरप्रदेश तब का यूनाइटेड प्रोविंस या संयुक्त प्रांत) में पाठ्यक्रम में उर्दू कि प्राइमरी क्लास की पाठ्यपुस्तक गुलिस्ताँ-वोस्ताँ में एक पाठ में साजिंदा-वाजिंदा में कन्वर्सेशन था--
"सैर कर दुनियाँ की गाफिल जिंदगानी फिर कहाँ ?
जिंदगानी गर रही तो नौजवानी फिर कहाँ !"