Friday, November 3, 2017

ट्रेल्स पास यात्रा, भाग-३, न्यू टिहरी से यात्रा शुरू

    आज सुबह अचानक गर्दन की नस खिंच गयी. सुबह से ही बड़ा दर्द है. इस दर्द ने ट्रेल्स पास यात्रा की याद दिला दी, तो आज तीसरा भाग लिखने आखिरकार बैठ ही गया.
    दरअसल पिछले साल सितम्बर के मध्य में अचानक रात को सोते हुए गर्दन में नस खिंच जिसमे असहनीय दर्द होने लगा. यात्रा के दिन पास आने वाले थे, इस दर्द ने चिंता बहुत बढ़ा दी थी. कई इलाज किये, यहाँ तक कि नाई के पास भी गया. उस दुष्ट ने ऐसा झटका मारा कि दर्द और बढ़ गया. इस दर्द ने यात्रा के दौरान बहुत परेशान किया. विशेषकर टेंट में सोने में.
   जिन पाठकों को ट्रेल्स पास के विषय में जानकारी नहीं है, वे सोच रहे होंगे कि ये ट्रेल्स पास किस्सा आखिर है क्या ?  तो पहले इस पर ही कुछ भूमिका देनी चाहिए थी.

ट्रेल्स पास या पिंडारी कांडा, या पिंडारी कांठा

 ट्रेल्स पास कुमाऊं के बागेश्वर की पिंडर घटी को मिलम घाटी या जोहार क्षेत्र को जोड़ने वाला दर्रा है. प्राचीन काल में यह तिब्बत से मिलम होते हुए बागेश्वर के हाट(बाज़ार) में भोटिया, जोहारी,दारमा आदि लोगों द्वारा व्यापार हेतु यात्रा का मार्ग हुआ करता था. कालांतर में यह मार्ग दुरूह हो जाने के कारण व्यापारियों द्वारा छोड़ दिया गया. 100 साल के बाद इस दर्रे को सन 1830 में बागेश्वर के सूपी गाँव के बूढा मलक सिंह द्वारा पार किया गया. 1830 में ही इस दर्रे को कुमाऊं के प्रथम कमिश्नर जॉर्ज डब्ल्यू ट्रेल द्वारा पार करने की कोशिश की गयी, लेकिन उसे असफलता हाथ लगी. बाद में वह वापस लौटा और इसे फतह किया. 1926 में एक और अंग्रेज Hugh Ruttledge ने इसे पार किया. क्योंकि दुनिया की नज़र में इसे जॉर्ज ट्रेल लाया था, अतः इसके नाम पर इसका नाम ट्रेल्स पास पड़ गया. यह कुछ ऐसा ही है जैसे कि वास्कोडिगामा ने भारत को खोजा. वैसे भी २०० साल की अंग्रेजी दासता के दौर में सभी जगहों के नाम अंग्रेजों के ही नाम पर थे. वैसे इसका वास्तविक नाम पिंडारी कांठा, या पिंडारी कांडा है. यह दर्रा कोई सबसे ऊँचे दर्रों में से एक नहीं है. लेकिन इसकी कठिनता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है, कि इसको सन 1830 के बाद से अब तक, पार करने के 90 प्रयास किये गए, जिनमे से आज तक 17 ही पार कर पाए. हमारा 15 वाँ सफल अभियान दल था. दो दल इसी साल सफल हुए हैं, उनमे एक सेना जैसे संगठन का था, और दूसरा तीन बार के ट्रेल्स पास विजेता ध्रुव जोशी जैसे गाइड और पर्वतारोही के मार्गदर्शन में गया था. यह है तो मात्र 5312 मीटर ऊँचा, लेकिन बहुत ही खतरनाक और कठिन दर्रा है. इस दर्रे को पार करने के लिए दो चीजों की बहुत आवश्यकता है. एक तो टेक्निकल पर्वतारोहण का कम से कम बेसिक नॉलेज, दूसरा मौसम आपका साथ दे. पर्वतारोहण का थोडा बहुत ज्ञान इसलिए क्योंकि इसमें सब कुछ है, ये मात्र एक ट्रैक नहीं है. इसमें ट्रैकिंग है, नदियों को पार करना है, रॉक क्लाइम्बिंग है, इसमें रॉक फॉल है, इसमें आइस फील्ड है, क्रेवास हैं, ऐवलांज है, आइस रेप्लिंग है, मने सब कुछ ! ट्रेल्स पास नंदा देवी और छंगुस पर्वत चोटियों के बीच एक खांच है, एक दर्रा है, लेकिन बिना रस्सियों पर चढ़े न तो चढ़ा जा सकता है, न ही उतरा जा सकता है.

  पिंडारी ग्लेशियर,सबसे अधिक लोग जाते हैं, इसके कई कारण हैं, एक तो यह सबसे सुगम है, वो इसलिए कि मात्र 45किमी के ट्रेक में कई रुकने के पड़ाव, टूरिस्ट बंगलो आदि हैं, अच्छा बना हुआ रास्ता है, खाना रहना मिल जाता है. आप मात्र एक छोटा सा बैग साथ में लेकर मजे से यह ट्रैक कर सकते हैं. दूसरे, पिंडारी के आस पास ही बहुत ही सुन्दर कफनी ग्लेशियर और सुन्दरढुंगा ग्लेशियर है. कफनी कोल से भी मिलम-जोहार की और निकला जा सकता है. पिंडारी ग्लेशियर की यात्रा के दौरान नंदा देवी, नंदादेवी ईस्ट,(नंदा-सुनंदा), नंदा खाट, नंदा घुन्घटी, बलजोरी, छंगुस, आदि पर्वत शिखरों ने नयनाभिराम दृश्यों का आनंद लिया जा सकता है.

यात्रा आरम्भ-

  रात सोते सोते शायद 3 बज गयी थी. सुबह साढ़े 5 बजे उठ गए थे. नहा धो के तैयार हुए, तब तक टीम लीडर नेगी जी और अन्य भी कई साथियों की कॉल आ गयी थी कि जल्दी पहुँचो भाई, 7 बजे उत्तराखंड के पर्यटन मंत्री श्री दिनेश धनाई जी ने यात्रा को फ्लैग ऑफ करना था. सामान वगैरह उठा के बौराडी गोल चौराहे पे पहुंचे. वहां तब तक और लोगों ने फर्स्ट क्लास कुर्सियां वगैरह लगा के कार्यक्रम की तैयारी कर रखी थी. दो टाटा सूमो खड़ी थी, उनमे सामान डाला. होटल में नाश्ता बना था, अभी मंत्री जी के आने में थोडा समय था, तो लगे हाथ मैंने दो परांठे निगल लिए. मंत्री जी आये 15 मिनट का उनका कार्यक्रम हुआ, उन्होंने दो शब्द कहे, शुभकामनाएं दीं, झंडा लहराया, और यात्रा चल पड़ी. चौराहे पर काफी लोग जमा हो गए थे. 8 बज गए थे तो स्कूल बस और काफी ट्रैफिक हो गया था. बहरहाल, काफी सारे लोग हमारी इस यात्रा के गवाह बने थे.
   गोरखे मजे से आगे की सीटों पर बैठे हुए थे, उन्हें डांट कर पीछे भागना पड़ा. मूर्ख से, कोई कह रहा मुझे उलटी होती है शाब ! जैसे गाड़ी का किराया देकर कहीं सफ़र करने जा रहे हों और अपनी पहले आओ पहले पाओ के आधार पर अपनी पसंद की सीट हथिया लो !
  अगला पड़ाव श्रीनगर था जहाँ से कुछ सामान लेना था, टमाटर प्यूरीऔर किसी को शायद कुछ दवाइयाँ आदि. लेकिन मुझे न्यू टिहरी से ही सरदर्द आरम्भ हो गया था, रात को नींद पूरी न होने की वजह से. मैं चुपचाप आँखें बंद किये बैठा रहा. श्रीनगर पहुँचते पहुँचते पेट में भी दर्द होने लगा था. अलसर दर्द कर रहा था जो कि चिंता की बात थी. ये मैं अनुराग के अलावा किसी को बताना नहीं चाहता था, मेरी यात्रा खटाई में पड़ सकती थी. कर्णप्रयाग से आगे कहीं मच्छी-भात खाने की बात हुई थी, लेकिन गाड़ियों में आपसी सामंजस्य न होने के कारण, दूसरी गाडी पता नहीं कहाँ रुकी, हमने एक जगह गाड़ी रोक कर सादा खाना खा लिया था. खाना खाने से दर्द तो हल्का हुआ था, लेकिन मुझे पता था कि थोड़ी देर में पेट खाली होते ही दर्द फिर से तेज हो जायेगा. दवाइयाँ बैग में थीं, और बैग सूमो की छत पर बंधे थे. थोड़ी देर फिर सोने की कोशिश कर ही रहा था कि टायर ही पंचर हो गया. सड़क बहुत ख़राब थी, सड़क के चौड़ी करण का काम चल रहा था. आगे एक जगह रुक करके फिर पंचर भी बवाना पड़ा. लगभग एक घंटा ख़राब हुआ. ग्वालदम से आगे एक बार फिर गाड़ी में पंचर हुआ, फिर पंचर लगवाया. शाम होने लगी थी, अभी मंजिल बहुत दूर थी, अभी तो बागेश्वर भी नहीं आया था, फिर कपकोट, और तब कहीं लुहार खेत था.
  ओह !
लैपटॉप की बैट्री जाने वाली है, अब शेष फिर लिखूंगा ! एडिट भी बाद ही में होगा, शुभरात्री !

Thursday, October 12, 2017

ट्रेल्स पास यात्रा, भाग --2, "देहरादून से यात्रा आरम्भ"


    संजय सेमवाल जी जीप अड्डे, रिस्पना पुल,देहरादून में इंतजार कर रहे थे. जीप में सीट भी रोक ली थी. संजय सेमवाल जी, जिन्हें आगे पोस्ट्स में संजू कहा जायेगा, उत्तराखंड शिक्षा विभाग में लेक्चरार हैं, सम्प्रति हरिद्वार में सर्व शिक्षा अभियान के जिला समन्वयक हैं. 21 साल पुराने दोस्त हैं और हमने कई यात्राएं साथ में की हैं.
  यात्रा की उत्कंठा में हमारा बातों का सिलसिला शुरू हो गया था. जीप चल पड़ी थी. मुझे जब भी किसी वाहन से, जिसे मैं खुद न चला रहा होऊं, (और ऐसा अवसर कम ही मिलता है), लम्बी दूरी की यात्रा करनी हो, तो मैं सोने का अवसर नहीं गवाना चाहता. और आनंद भी आता है, यह बात दीगर है कि यात्रा की समाप्ति पर गर्दन और एकाध जगह से खोपड़ी भी, दर्द कर रहे होते हैं. लेकिन आज नींद कोसों दूर थी. इसी की चर्चा करते रहे कि कैसी जगह होगी ! कहाँ कहाँ से जाना होगा ! क्या क्या कठिनाइयाँ होंगी ! आदि आदि! एक बात संजू को और परेशान कर रही थी कि उसकी छुट्टी स्वीकृत नहीं हुई थी. अधिकारी ने जान बूझ कर टांग अड़ा दी थी. उसका झगडा हो गया था, और वह बिना छुट्टी स्वीकृत कराये ये कह के आ गया था कि जाऊँगा तो मैं जरुर, तुमसे जो होगा वो कर लेना ! उसने आते समय मन्नत मांगी थी कि हे भगवान ! वापस आकर मैं इस अधिकारी की सूरत न देखूँ, और वाकई में उसकी दुआ में असर था या जाने संयोग, वापसी में जब हम फोन के नेटवर्क में आये, उसे सबसे पहले यही खबर मिली कि उस अधिकारी का तबादला हो गया है !
  नई टिहरी पहुँचने पर अनुराग मिला, अनुराग पन्त भी 20 साल पुराना, घनिष्ठ मित्र है, और हमने अधिकतर यात्राएं साथ में की हैं. हमको वो उस होटल में ले गया जहाँ सब ने इकठ्ठा होना था और अगले दिन यहीं से रवानगी होनी थी. उत्तरकाशी से 8 पोर्टर आ चुके थे. इनमे 1 उत्तरकाशी का, और 7 गोरखे थे. कुछ साथी वहाँ बैठे थे, लेकिन अभी परिचय नहीं था. ग्रुप लीडर से मैं एक बार मिल चुका था पहले. शिव सिंह नेगी जी, उम्र 58 साल,  'हितम' (हिमालयन ट्रेकर्स एंड माउन्टेनियर्स) के संस्थापक. जवानी से अब तक न जाने कितने ट्रेक, कितने अभियान, कितने पर्वतारोहण कर चुके हैं. जिस होटल में हम एकत्र हुए थे, इसके मालिक सुरेन्द्र सिंह राणा जी भी हमारे दल के वरिष्ठ सदस्य थे. ये भी करीब 56 साल के हैं और इनको भी बहुत अनुभव है. कुछ साथी रूडकी से हमें सिर्फ सामान पहुंचाने टिहरी आये थे. इनका ट्रेक पर जाना संभव नहीं हो पाया था. ये लोग तुरंत ही वापस भी चले गए थे. नेगी जी ने, पोर्टरों को लाइन अप किया और उनकी ब्रीफिंग की. उनका एक्स्पीरिएंस पूछा. उत्तरकाशी वाला तो था ही प्रोफेशनल, लेकिन बाकी गोरखों ने बताया कि वो केदारनाथ, निम (नेहरु इंस्टिट्यूट ऑफ़ माउंटेनियरिंग)  के साथ भी गए हैं. एक गोरखा कालू, जो जवान छोकरा था, जादा से जादा 20-21 साल का, कह रहा था कि उसने कालिंदी और एवरेस्ट बेस कैंप कर रखा है. उस समय तो यकीन न करने का कोई कारण नहीं था, लेकिन बाद में ट्रैक पर उसकी हरकतों से मुझे संदेह सा हुआ. उनको अडवांस पैसा दे दिया गया था, अतः नेगी जी ने उनसे कहा कि, जिसके पास चश्मा और ढंग का जूता नहीं है, अभी बाज़ार जा के ले आओ. गोरखे बाज़ार चले गए. हम लोग यात्रा के सामन पैकिंग में लग गए. कार्य प्रभार बाँट दिए गए, किसी को राशन का संभालना था, किसी को टेंट आदि, तो किसी को टेक्निकल सामान का. लगभग 2 से 3 घंटे तक पैकिंग का काम चलता रहा. फिर हम भी बाज़ार गए, ज़रूरी दवाएं आदि लीं, कुछ और छूटा-पूटा सामान लिया. उसके बाद होटल में मीटिंग हाल में मीटिंग हुई. पहले सब लोगों का आपस में परिचय हुआ. फिर सभी ने कुछ न कुछ कहा. नेगी जी ने कहा कि भई अगर किसी भी मेंबर को कोई भी प्रॉब्लम है, तो निस्संकोच अभी बता दे. बाद में अगर किसी को कोई दिक्कत हुई, तो एक आदमी की वजह से अभियान फेल नहीं होना चाहिए. किसी को दिक्कत नहीं थी. हाँ लेकिन मुझे थी. सोचा कि बता दूँ ? अनुराग को चुपके से बताया, उसने कहा कि चुप ही रह. दरअसल पिछले कुछ दिनों से अल्सर दर्द कर रहा था. जिसकी मैं करीब 15 दिन से दवाइयां खा रहा था. दूसरा एक और पसलियों के नीचे कहीं अंदरूनी भाग में दर्द हो रहा था, मैं अल्ट्रासाउंड भी करवा आया था, लेकिन रिपोर्ट नार्मल थी. काफी देर विचारों का आदान प्रदान हुआ, फिर गुड नाईट हो गयी. कुछ लोग होटल में ही रुके थे, कुछ अपने घर चले गए थे. संजू अपनी पत्नी के पास चम्मा चला गया था. मैंने अनुराग के घर रुकना था, क्योंकि अभी हमें अपनी पर्सनल पैकिंग भी करनी थी. मुझे अपने पैकिंग में अनुराग की जरुरत थी, क्योंकि मैं कभी भी सामान कम नहीं कर पाता. वहाँ भी मैं बहुत सामान ले गया था, जिसमे आधा टिहरी छोड़ना पड़ा.
   पैकिंग में हमें शायद 2 बज गए थे. नींद का समय बीत चुका था, अतः काफी देर तक नींद नहीं आई. अगर ढाई बजे भी आई होगी, तो सुबह साढ़े 5 का अलार्म था. 7 बजे रवानगी थी. पर्यटन मंत्री ने फ्लैग ऑफ करना था, अतः वहां पे कुछ तैयारियां भी करनी थी. नींद के आगोश में आते ही पर्वतारोहण शुरू हो गया था. जो सामान मैंने पैकिंग करते समय आज पहली बार देखा, तरह तरह की रोप, कैरीबिनर, आइसबूट, क्रेम्पोन्स, गेटर्स आदि, उन्हीं समस्त अस्त्र-शस्त्रों से लैस मैं वर्टिकल लिमिट मूवी की भांति हिमालय में रस्सियों से लटका हुआ था !!!! और गिरता जा रहा था, गिरता जा रहा था, अंतहीन गहरे गर्तों में !!!!

(जारी.....)
अगला भाग......शीघ्र ही.....
                                           अनुराग पन्त और मैं ट्रेल्स पास पर(ऊपर)
                                          संजय सेमवाल और मैं ट्रेल्स पास पर(ऊपर), नीचे मैं.

Saturday, October 7, 2017

ट्रेल्स पास यात्रा, (Traill's Pass Expedition 2016 )

ये यात्रा पिछले साल की थी. जैसा कि हमेशा ही होता आया है ! मुझ आलसी को, यात्रा से वापसी में तो बड़ा जोश रहता है, कि इस बार ये यात्रा लिखनी है, और पिछली भी सारी लिख डालनी है, लेकिन हर बार टांय टांय फिस्स ! किसका लिखना, किसका कुछ, जिंदगी अपने घिसे पिटे ढर्रे पर फिर घिसटने लगती है, और फिर वही--
एक बार मैंने टिहरी में अपने एक बुजुर्ग भाईसाहब को पूछा था, कि ''और भाईसाहब, क्या हो रहा है'', तो उन्होंने बड़ा ही खूबसूरत शायराना ज़वाब दिया था !-
"सुबह हो रही है शाम हो रही है,
ज़िन्दगी यूँ ही तमाम हो रही है !''

और अगली बार मिलने पर जब उन्होंने पूछा था कि, ''और भई, क्या हाल हैं ?"
तो हमने भी उसी अंदाज़ में पलट वार किया था--
'वही हड्डी है, वही खाल है"

पिछले साल की बात है, शायद अप्रैल या मई में अनुराग ने ट्रैक के बारे में पूछा था, कि शिव सिंह नेगी भाईजी एक ट्रैक का प्लान कर रहे हैं, वहां चलें क्या ? मैंने पूछा था कि कौन नेगी जी ? तो उसने बताया था कि अरे यार वही, जिन सीनियर लोगों की मैं बात करता रहता हूँ, कि जिनका एक ग्रुप है और जो लोग जाते रहते हैं. अच्छा अच्छा कह कर मैंने उदासीनता से बात को आई गयी कर दिया था.
    यात्रा की ये विशेषता है. घुमक्कड़ी के कीड़े को जिंदा रखने के लिए आपको हर साल कम से कम दो बार कहीं जरुर निकलना चाहिए. यदि एक साल खाली निकल गया, तो ये कीड़ा भी कहीं दिमाग में गहरे जाकर सो जाता है, और फिर जगाने से भी आलस में अलसाया उठेगा और कोई रूचि नहीं दिखायेगा.
  मेरा एक साल फालतू चला गया था. राज जात मैं जा नहीं सका था. अगर आपदा न आती  और सही समय पर राज जात हो गयी होती, तो मैं तो उसका 12 साल से इन्तजार ही कर रहा था ! 2012 में जब होनी थी, तब मल मास(अधिक मास ) के कारण नहीं हुई थी, और 2013 में समूचे उत्तराखंड में आई आपदा के कारण स्थगित हो गयी थी. उन दोनों साल पूरी पूरी तयारी थी. 2012 में तो हमने फिर भी खतलिंग-मासरताल कर लिया था. लेकिन 2013 भी ऐसे ही चला गया. 2014 में फिर से पूरी तैयारियां की, जून में 10 किलो वज़न घटाया, लेकिन दो कारण हो गए, जुलाई में घुटनों में बहुत दर्द हो गया, डॉक्टर ने कहा भले मानस ! दौड़ने की क्या ज़रूरत थी, सिर्फ तेज चाल में पैदल चल के भी तो वर्कआउट किया जा सकता था ! दूसरा, उन्ही दिनांकों को पंचायत के उपप्रधानों के चुनाव में ड्यूटी लग गयी ! और 15 अगस्त 2014 में हमारे यहाँ आई आपदा के कारण पूरी सड़क बह गयी थी, 12 किमी पूरा पैदल चलना था. मित्रमंडली चली गयी थी, और मुझे कहा गया था कि तुम हमसे बाद में आके मिल जाना. मैं चुनाव ड्यूटी से आकर जा सकता था, कागज-पत्तर कोई साथी भी जमा करवा सकता था, निर्वाचन निर्विरोध हुआ था, अतः कोई टेंशन की बात नहीं थी. मशहूर घुमक्कड़ और हिंदी के यात्रा ब्लॉगर, संदीप पंवार जाट देवता से संपर्क भी हुआ, उन्होंने कहा भी कि मैं लेट निकल रहा हूँ और यात्रा को बेदनी में पकड़ लेंगे, चले चलो ! लेकिन घुटनों के दर्द और घरवालों के दबाव के कारण मैं पीछे हट गया.  इस तरह मैंने वह अवसर गवांया जिसका मुझे 14 साल से इंतजार था, और 2026 में शायद मैं इतना फिट रहूँगा भी नहीं कि इतनी कठिन यात्रा पर जा भी सकूँ !
  तो जब जुलाई में अनुराग ने फिर संपर्क किया कि फोटो और ID दो, यात्रा की परमिशन के लिए अप्लाई करना है, तो मैंने अनिश्चय की स्थिति में दे भी दिया. पैसे उसने खुद ही जमा कर दिए थे. कुछ दिन बाद जब अनुराग ने बताया की 12 लोगों की परमिशन आ गयी है, मैं तब भी श्योर नहीं था, क्योंकि मुझे लगता था कि घरवाले बिलकुल भी नहीं जाने देंगे ! फिर भी 15000 जमा करवा दिए थे.
  परमिशन आने के बाद पहले माँ से भूमिका बनाई, कि ऐसे ऐसे करके मेरा चयन हुआ है, और मुझे जाना है, तो आश्चर्यजनक रूप से उन्होंने इजाजत दे दी, कि यदि तुम इस ऐतिहासिक अभियान को कर पाते हो तो मुझे तो अपने बेटे पर गर्व ही होगा . अब मुख्य समस्या श्रीमती जी की अनुमति की थी. खतलिंग यात्रा संपन्न होने के बाद तो उन्होंने पूरा ड्रामा रच दिया था. फिर ये तो उससे भी खतरनाक अभियान था ! लेकिन अभियान की खतरनाकता का तो उन्हें कोई अंदाज भी नहीं हो सकता था, क्योंकि उन्हें तो इस बात पर भी आश्चर्य होता है, ऐसी जगह भी कोई हो सकती है, जहाँ फोन के सिग्नल नहीं होते ! खैर एक दिन अच्छे मूड में देख कर डिटेल बता ही दी कि 10 दिनों के लिए हिमालय पर जाना है. पता नहीं कैसे उस दिन उनका मूड इतना अच्छा था कि उन्होंने भी इजाज़त दे डाली कि, "जा सिमरन जा ! जी ले अपनी ज़िन्दगी !" शाहरुख़ खान की एक फिल्म में एक डायलॉग भी था शब्दशः तो नहीं पर कुछ कुछ ऐसा ही था शायद, "अगर तुम किसी चीज को शिद्दत से चाहोगे तो पूरी कायनात तुम्हें उस शै से मिलाने में जुट जाएगी"
  बस ! फिर क्या था ! उस दिन से तो दिल बल्लियों उछलने लगा ! हर समय बस एक ही आशंका लगी रहती कि ऐन समय पर ऐसा कुछ न हो जाय जिससे जघ्न में विघ्न हो जाय ! डिपार्टमेंट से स्पेशल कैजुअल लीव के लिए अप्लाई भी कर दिया था, छुट्टी स्वीकृत भी हो गयी थी. थोडा थोडा करके खरीददारी भी कर डाली थी. लेकिन फिर ऐन समय पर एक दिक्कत आन ही पड़ी ! हुआ यूँ कि बड़े भाई किसी काम से दिल्ली आये थे तो परिवार से मिलने, देहरादून भी चले आये. उनको वापसी के लिए रेलगाड़ी में छोड़ने जाना था कि अचानक अनुराग का फोन आ गया कि टीवी खोल के फलां चैनल को देखो, हमारी यात्रा के बारे में आ रहा है. चैनल लगाया तो शिव सिंह नेगी भाई जी के इंटरव्यू पे आधारित एक न्यूज़ रिपोर्ट आ रही थी कि ऐसे ऐसे करके एक अभियान दल ट्रेल्स पास पर जाने वाला है. और न्यूज़ चैनल अपनी रिपोर्ट की रोचकता को बढ़ाने के लिए न जाने कहाँ कहाँ से, इन्टरनेट के वीडियो डाल रहा था, जिनमे ग्लेशियर टूटते हुए दिखा रहा था, ऐवलांज आदि दिखा कर उसने विडियो को काफी डरावना बना दिया था, जिसको देख के घरवाले डर गए.
   खैर, हुआ जी, जैसे भी हुआ ! लास्ट वाले दिन की खरीददारी करने तो श्रीमती जी भी साथ गयी थी, उस दिन जूते कपड़े, स्लीपिंग बैग, टेंट आदि लिए थे. जूता 5000 का ले लिया लेकिन वो गलत सौदा ही साबित हुआ. उससे पहले भी एक फौजी लॉन्ग बूट लिया था लेकिन 2 घंटे पहन के ही नानी याद आ गयी थी !
     मेन समस्या चश्मे की आ रही थी. जो स्नो ग्लासेज बाज़ार में उपलब्ध थे, वो नजर के नहीं हो सकते थे, और ऐसा चश्मा मिल नहीं रहा था जो हमारे नज़र के चश्मे के ऊपर चढ़ सके. नज़र का चश्मा फोटोक्रोमैटिक तो था, मगर सामान्य धूप के लिए. बर्फ की चमक से बचने को तो बर्फ के लिए स्पेशल बना चश्मा ही चाहिए था ! काफी दुकानों पे भटके. दोनों बच्चे साथ थे जो थक कर, बोर होकर परेशान हो गए थे, और हमें भी परेशां कर रहे थे. फिर घंटाघर की एक दुकान पर एक चश्मा मिला, जिस पर चुम्बक से एक बाहरी चिपकाने वाला काले लैंस का अटैचमेन्ट था, जिसे जब चाहो लगा लो, जब चाहो हटा लो ! तुरंत बनवाने को दे दिया, हालाँकि साढ़े चार हज़ार का था और मैंने इतना मंहगा चश्मा कभी पहना ही नहीं था. लेकिन इसका एक फायदा था कि इसने सामान्य तौर पर भी काम आना था. अनुराग को फोन करके पूछा तो उसने भी तुरंत सहमति दे दी कि मेरे लिए भी एक बनवा दो. बाई चांस दूकानदार के पास दो ही पीस थे. लेकिन अनुराग के  चश्मे का नंबर चाहिए था. वो उस समय नई टिहरी बाज़ार में था और पैदल था ! फिर वो घर गया, बड़ी मुश्किल से नंबर ढूंढा, मुझे व्हाट्सऐप किया. इतनी देर मैं सपरिवार दुकान पर ही बैठा रहा. बच्चे भी परेशां हो गए और दूकानदार भी, उसे भी घर जाना था, रात के 9 बज चुके थे. चश्मा आज ही बनने को देना था, ताकि कल मिल सके. श्रीमती जी को ये चिंता थी कि घर पर पापाजी भी हैं, उन्हें भूख लग गयी होगी ! फिर खाना भी बाज़ार से बनबनाया ही ले जाना पड़ा. अगले दिन शाम को चश्मे तैयार मिल गए थे. कुछ सामान अनुराग ने और भी बताया, वो भी बाज़ार से ले लिया था. अब अगले दिन का इंतजार था. रविवार के दिन का, जब मुझे और संजय सेमवाल को देहरादून से टिहरी पहुंचना था. वहीँ पूरी टीम ने मिलना था. उनके निर्देश थे कि सुबह सब जल्दी पहुंचें, क्योंकि पैकिंग भी करनी थी, अन्य तैयारियां भी करने को थी.
  राम राम करके रात गुजरी ! नींद किसे आनी थी ! रात रात भर तो गूगल मैप देखता रहता था, उस जगह को समझने की कोशिश करता रहता था. रोमांच के कारण दिल धाड़-धाड़ बज रहा था. मैं अपने स्कूल से सारा हिसाब-किताब सब सहायक अध्यापक को समझा के आ गया था. स्कूल से निकलते समय मैं भी जरा भावुक सा हो रहा था, हो सकता है दुबारा इस स्कूल को, इन बच्चों, सहकर्मियों को मिल पाऊं या नहीं ! कौन जाने !
  सुबह बहिन और उसका पति नाश्ते पर मिलने आने वाले थे. वो जयपुर घूम के आये थे, तब से मिले नहीं थे. वैसे वो लोग शाम को आने वाले थे, फिर उन्होंने जब सुना कि मैं यात्रा जा रहा हूँ, तो सुबह ही मिलने आने का प्रोग्राम बना दिया था. लेकिन जब वो लोग साढ़े ग्यारह बजे तक नहीं आये, तो मुझे निकलना पड़ा. इसी बात का आजतक अफ़सोस है, ताजिंदगी रहेगा ! काश मैं 15-20 मिनट और रुक जाता ! सबको लगता था, और मुझे भी कि, मैं लौटूं न लौटूं ! हो सकता है ये आखिरी दर्शन हों ! लेकिन मैं कपिल(बहनोई) को आखिरी बार सही सलामत न देख पाया. जब लौटा तो वो ICCU में था, बेहोश ! और फिर वहां से उसका मृत शरीर ही बाहर आया !
      संजू का फोन आ गया था, और वो जीप अड्डे पर इंतज़ार कर रहा था. श्रीमती जी ने जीप अड्डे पर छोड़ा, दोनों की आँखें भर आईं थीं ! कहते हुए उनका गया रुंध गया था, "अवनी के पापा, आप जा तो रहे हो लेकिन......" इससे आगे वो न कह पाई !
  कैसी विडम्बना है ! दैव क्या कर देता है, हम सोच भी नहीं सकते ! मैं उतने खतरों से खेलने जा रहा था, जहाँ, पल-पल, पग-पग पर मौत थी ! लेकिन इन्सान ये भूल जाता है कि मौत तो सब जगह है, उसके लिए क्या घर, क्या हिमालय ! मैं तो वहां से सही सलामत लौट आया जहाँ कुछ हो जाता तो कोई साधन न था, एक मात्र मेडिकल किट भी गोरखे ने गिरा दी थी, लेकिन कपिल सर्व सुविधा संपन्न हॉस्पिटल से सलामत न लौट पाया !

कपिल को गए भी साल होने को आया ! पिछले साल 29 अक्टूबर, दीवाली पर. अभी भी यकीं नहीं होता. लगता है वो हमारे साथ ही है आज भी. तुम हो न हो ! तुम्हारी यादें तो हमेशा साथ रहेंगी ! विनम्र श्रद्धांजलि !
    (बाकी दूसरे दिन,   शुभ रात्री !)
अगले लेख में--- ट्रेल्स पास के बारे में, यात्रा की तैयारियाँ, और यात्रा का पहला दिन, नई टिहरी से लुहारखेत DAY - 1......