Friday, May 14, 2021

घ्वीड़ संग्रान्द

 "घ्वीड़ संग्रान्द"

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आज ज्येष्ठ मास की संक्रांति है। लगभग हर मास की संक्रांति को हमारे पहाड़ में किसी न किसी त्योहार के रूप में मनाया जाता है, इस संक्रांति को हमारे क्षेत्र में घ्वीड़ संक्रांति के रूप में मनाया जाता है। घ्वीड़ यानी 'घूरल' को अलग अलग क्षेत्र में, उच्चारण की भिन्नता के कारण कहीं घ्वेल्ड, कहीं घुरड़ आदि नामों से पुकारते हैं, ये पहाड़ी जंगली बकरी की प्रजाति है। हमारे यहाँ घ्वीड़ ही कहते हैं, कन्हैया लाल डंडरियाल जी की पुस्तक "चाँठ्यों का घ्वीड़" में उन्होंने घ्वीड़ शब्द का ही प्रयोग किया है, जिम कॉर्बेट ने अपने साहित्य में हर बार Ghooral लिखा है। यह काकड़ की तरह हिरण नहीं है। ऐसे ही भरल या भरड़ पहाड़ी जंगली भेड़ की प्रजाति है।

पहले इसको कैसे मनाते हैं, इसपर चर्चा करेंगे, फिर करण पर।

जिस प्रकार भारत के अन्य त्योहार फसलों पर आधारित हैं, उसी प्रकार ये भी पहाड़ में रबी की फसल के 'नवाण'(नवधान्य का उद्घाटन)  का त्योहार है। नए गेहूँ को पिसवा कर उसके आटे में गुड़ मिला कर गूंथा जाता है। सख्त गुँथे आटे से घ्वीड़ की आकृति की मूर्तियाँ बनाई जाती हैं, फिर उनपर नई मसूर की आंखें लगाई जाती हैं। पहाड़ में मसूर काले रंग की होती थी, जिसका स्वाद मुझे अब किसी भी मसूर में नहीं मिलता, लोगों ने बीज बचाकर नहीं रखा, और बीज केंद्रों से अब चितकबरी मसूर बोई जा रही है, जिसमें वो स्वाद कहाँ ! विजय जड़धारी जी जैसे लोग बीज बचाओ आंदोलन को पूरी शिद्दत से चला रहे हैं, लेकिन जब खेती बचेगी, तभी तो बीज बचेगा, और खेती तब न बचेगी, जब पहाड़ पर लोग बचेंगे ! 

फिर इनको गुलगुलों के जैसे खिलौनों, यानी घ्वीड़ को नई सरसों के तेल में तला जाता है। पश्चात बच्चों को ये खिलौने दिए जाते हैं। जब तेल की कढ़ाई चढ़ी ही होती है, तो लगे हाथ पिछली संक्रांति की बची हुई 'पापड़ी', (चावल के पापड़) भी तल ली जाती है, स्वांले-पकौड़े भी बना लिए जाते हैं।

घ्वीड़ को मारने के लिए बच्चों की 'किनगोड़' की तलवारें होती हैं। किनगोड़(दारू हरिद्रा, दारू हल्दी, Indian Barberry, Tree Turmeric, वैज्ञानिक नाम- Berberic aristata) एक बहुत ही गुणकारी आयुर्वेदिक औषधि है। हम बच्चे, इस त्योहार के लिए किनगोड़ का बढ़िया सा, सीधा, मोटा तना ढूंढ के रखते थे, क्योंकि ये एक झाड़ी है, अतः इसका तलवार बनाने लायक तना मुश्किल से मिल पाता था। फिर उस समय जलावनी लकड़ी के लिए गाँव के आसपास तो झाड़ियाँ सफ़ाचट्ट कर दी जाती थीं, किनगोड़ का तलवार बनाने लायक तना मिले भी तो कहाँ ! हम एक बार उसे ढूंढ लें, तो सभी दोस्तों से छुपा कर रखते थे, लेकिन त्योहार से कुछ दिन पहले, पता चलता था कि वह तना गायब !! भई अकेले हम ही तो खोजी नहीं थे ! खैर, सभी बच्चे एक से अधिक तने ढूंढ के रखते थे, फिर शुरू होती थी गाँव के बढ़ई की खुशामद ! झंगोरे आदि फसलों की बुवाई का समय होने के कारण एक तो वो सारे गाँव के हल, कृषि यंत्र आदि बनाने, रिपेयर करने में बहुत बिजी रहता था, ऊपर से सारे गाँव की बाल मंडली उसके सर पर, हमसे बात तक करने की उसको फुरसत कहाँ होती थी ! उस समय गाँव में आबादी भी काफी थी, कई-कई भाई बहन और पलायन न होने के कारण सभी परिवार गाँव में रहते थे। खूब रौनक रहती। खैर, बढ़ई ने कभी किसी को निराश किया हो, ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता। त्योहार के दिन तक सभी बच्चों की तलवारें वह बना ही देता था। तलवार तैयार हो जाने की प्रसन्नता का बखान करना संभव नहीं है, यूँ समझ लीजिए कि घनघोर तपस्या के बाद भोलेनाथ से ज्यों पशुपत्यास्त्र पा लिया हो ! तलवार झख पीले रंग की होती थी। इससे हम आपस में नकली युद्ध भी करते थे। एक बात और, तलवार को किनगोड़ की कच्ची लकड़ी से ही बनाया जाता था, शायद आसानी के कारण, फिर उसे छाँव में सुखाते थे, अन्यथा वो फट जाती थी या टेढ़ी-मेढ़ी हो जाती थी।

फुल्यारी के त्योहार के दौरान, हम सभी बच्चे आंगन में अपनी अपनी 'छानी' (बच्चों के खेलने के घर) बनाते थे  जो कि सबकी योग्यतानुसार उनके वास्तुशास्त्र निपुणता के नमूने होते थे, किसी का दो तल्ला, किसी का तीन तल्ला ! इन छानियों पर हम चैत्र मास में रोज सुबह फूल डालते थे। पापड़ी संग्रान्द के दिन उस पर फूल कंडी (फूल कंडी बनवाने के लिए भी टोकरी बुनने वाले हुनरमंद लोगों की उसी तरह खूब चिरौरी करनी पड़ती थी) में पापड़ी रखकर ग्राम देवता के बाद, सबसे पहले चढ़ाते थे, तब ही खाते थे ! घ्वीड़ के गले में रस्सी बांध, उसे अपनी छानी पर ले जाकर, उसकी गर्दन काट कर फिर उन खिलौनों को खाते थे। एक बार मैंने दो तल्ला छानी बनाई थी, उसकी छत पर घ्वीड़ को रखकर,  उसकी गर्दन पर कई वार किए, एक तो तलवार लकड़ी की जिसमें धातु जैसी धार कैसे होती ? ऊपर से घ्वीड़ सख्त आटे का ! जब सफलता नहीं मिली, तो मैंने पूरी ताकत से प्रहार कर डाला ! घ्वीड़ की गर्दन तो पता नहीं कटी कि नहीं, लेकिन जोरदार प्रहार से मेरी छानी ढह गई !! मेरे लिए तो ये बहुत दुखदाई रहा, लेकिन अन्य बच्चों, दोस्तों के मनोरंजन के लिए कई दिनों तक एक चुटकला ही बन गया ! बचपन की एक तलवार शायद आज भी मेरे गाँव में सम्हाली हुई है, उस बार मैं सबसे मोटा तना ढूँढ के लाया था।

इस त्योहार को इस रूप में क्यों मनाया जाता है, इसका कोई तार्किक उत्तर तो मुझे कभी किसी से नहीं मिल सका, लेकिन मेरे स्वयं के विचार से इसमें जौनपुर-जौनसार के 'मरोज' त्योहार की भांति हमारे आदिम समय की यादें जुड़ी हैं, जब हमारे पूर्वज आखेटक हुवा करते थे। 

अब गाँव में न बच्चे बचे हैं, न लोग ! बचे-खुचे लोग किसी तरह बची-खुची परंपराओं को बचाये हुए हैं ! 

हम लोग तो शहरों में सीमेंट कंक्रीट के दड़बों में छुपे हुए अपने रीति-रिवाज, परंपराओं, त्योहारों को भुलाकर पता नहीं किस आधुनिकता का अंधानुकरण करने जा रहे हैं। अंग्रेजी मीडियम स्कूलों में पढ़ने वाले हमारे बच्चे क्रिसमस, मनाने, संता बनने में ही खुश हैं ! नरेंद्र सिंह नेगी की कई वर्ष पूर्व दी गई चेतावनी को हम लगातार सत्य होते हुए बस, बेबस होकर ही देखते जा रहे हैं। "ना दौड़ न दौड़ तैं उंधारी का बाटा" वाले गाने का सार ही यही है, कि जो नीचे चला गया, उसका वापस लौटना बहुत मुश्किल है। तुलना उन्होंने पवित्र हिम से की है, जो गंगा में बहकर, गंदा होकर मैदानों की ओर चल दिया। लेकिन एक आस जिसपर दुनियाँ कायम है, उसी के अनुसार सोचूँ, तो समुद्र में पहुंचने के बाद, फिर से वह पानी बादल बनकर हिमालय पर आएगा, उसी पवित्रता के साथ, और शायद फिर काफी सालों तक वहीं जमा रहे !! बस वक्त की बात है !

----अंशुल कुमार डोभाल

        14/05/2021

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