Saturday, November 5, 2016

'अथातो घुमक्कड़ अभिलाषा"

                                                                  चैरेवेति चैरेवेति
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   मनुष्य ने घूमना कब आरम्भ किया होगा ?
शायद मनुष्य बनने से पहले जब वो कपि था. बंदरों कि टोली ज्यों एक जगह से दूसरी जगह घूमती रहती है !
या फिर उससे भी पहले जब वो परिंदा था ! शायद ही परिंदों से जादा घुमंतू कोई और हो ! उनके परों का विकास भी शायद उनकी इस घूमने कि अभिलाषा के ही कारण हुआ हो ! दूर साइबेरिया से हजारों किलोमीटर दूर  भारत और अन्य देशों में पहुंचना, फिर लौटना, इतनी बड़ी यात्रा में क्या क्या नहीं देखने को मिलता होगा ! इस प्रवास में तो किसी की जीवन यात्रा ही ख़त्म हो जाती होगी ! हाल ही में पक्षी विज्ञानियों ने पता लगाया है कि एक छोटा सा बाज, भारत के उत्तरपूर्वी राज्यों से अफ्रीका तक प्रवास करने जाता है ! लियो नार्डो दा विन्ची , राईट बन्धु, और कई और वैज्ञानिकों ने शायद इसी घूमने कि इच्छा के कारण पक्षियों कि भांति उड़ सकने लायक मशीन बनाने कि दिशा में प्रयास किये होंगे !
   मनुष्य का आरंभिक घूमना, पशु-पक्षियों कि भांति जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं कि पूर्ति के लिए रहा होगा. लेकिन पशुओं में भी सब इच्छाओं की पूर्ति के बाद भी घूमने कि प्रवृत्ति पाई जाती है, अन्यथा आपका पालतू डौगी क्यों बार बार बाहर घुमाने ले जाने की जिद करता है ? इसी प्रकार एक छोटा सा ६ माह का बच्चा भी आपसे बाहर घुमाने कि अपेक्षा करता है, और इससे उसे ख़ुशी मिलती है !
    आरंभिक मानव जब आदिमानव था, गुफाओं में रहता था तो उसका एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना, जरुरत थी. भोजन, मौसम, प्राकृतिक घटनाएं आदि के कारण वो भटकता था. बाद में जब वो पशु-चारक बना तब भी, पशुओं के चारे के कारण उसे लम्बे प्रवास करने पड़ते थे, आज भी गडरिये इसका उदहारण हैं. लेकिन इन लम्बे प्रवासों के कारण जगह जगह भटकने के कारण, प्रकृति की विविधताओं, सौन्दर्य, रहस्यों के कारण, घूमने कि उत्सुकता उसके स्वभाव में सम्मिलित हो चुकी थी. वरना अपने चारागाहों के अतिरिक्त उसने अन्य जगहें क्यों छानी ? वो पशुचारक ही हैं जिनकी वजह से आज हमें तमाम पहाड़ों, दर्रों, चोटियों, ट्रैकों, नदियों के उद्गम स्थलों-ग्लेसियरों, नदी-घाटी, रेगिस्तानों, मैदानों, आदि आदि का ज्ञान है.उन्ही के साथ जाकर या उन्हीं के बनाये रास्तों पे चलकर ही महान लोगों ने एवरेस्ट और अन्य महत्वपूर्ण जगहों की खोज की. चाहे वो सिकंदर रहा हो, गजनवी, गौरी, तैमूर, चंगेज खां, ह्वेनसांग, फाह्यान, मेगस्थनीज, इब्नबतूता, या तमाम धर्म प्रचारक, गड़रियों के बताये रास्तों पे चलकर ही आज इतिहास में अमर हैं.
   मनुष्य के पशुचारक से बाद में कृषक बन जाने के बाद भी घूमने की प्रवृत्ति नहीं गयी ! क्योंकि अब तो हजारों पीढियां हो जाने के बाद वह जीन में आ गयी होगी, जीव विज्ञान के सिद्धांत "उपार्जित लक्षणों की वंशागति" के अनुसार. कालांतर पर जब व्यापार शुरू हो गया, तो व्यापारियों द्वारा अपने देखे हुए मुल्कों के किस्से सुनाने पर घूमने के शौकीनों की अभिलाषा और बलवती होती गई होगी ! और घूमने के शौक़ीन लोग उनके साथ नौकर बनकर या अन्य किसी तरीके से घूमने निकल पड़ते !
   सम्पन्नता के साथ अपराध का जन्म स्वाभाविक है, इन व्यापारिक मार्गों के आस पास लुटेरों का प्रकोप बढ़ता गया. देश बनते गए. पुर्तगाल जैसे देशों,जिनके पास समुद्र के अतिरिक्त  स्थल मार्ग से अन्य दुश्मन देशों की सीमायें ही थी, व्यापार का अन्य कोई रास्ता न था, ने समुद्री मार्गों की खोज की. भारत का भी प्राचीन नौपरिवहन काफी समृद्ध था. उन व्यापारियों की भी सच्ची झूठी कहानियों से प्रेरित हो कई लोग घूमने निकले. जैसे सिंदबाद की कथा.
    यही घूमने की अभिलाषा, जिसे महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने घुमक्कड़ी नाम दिया, किसी में कम किसी में जादा, लेकिन सबमे होती है. राहुल सांकृत्यायन जी स्वयं एक महान घुमक्कड़ थे. इसी अभिलाषा के कारण ही वो इतने विद्वान बन पाए, उन बौद्ध धर्म ग्रंथों के उद्धारक बन पाए जो नालंदा तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों के जलाकर नष्ट कर दिए जाने के कारण विलुप्त हो गए थे, विश्व की ३६ भाषाओँ के ज्ञांता बन पाए. यही है जिसके कारण मानव इतना विकास कर पाया. यही है जिसके कारण मानव आज इस पृथ्वी का राजा है, चप्पे चप्पे पर विद्यमान है, और अंतरिक्ष को भी विजित करना चाहता है ! यही है जिसने सभ्यता, संस्कृति, धर्मों को फैलाया ! और यही है जिसके कारण आज पूरा विश्व एक है !
तो मेरे घुमक्कड़ मित्रों !
घुमक्कड़ी जिंदाबाद !
लगे रहो, घूमते रहो, चैरेवेति, चैरेवेति !

आज अपना यात्रा ब्लॉग शुरू करने जा रहा हूँ. इस कार्य हेतु सभी वरिष्ठ ब्लागरों, यात्रा संस्मरण लेखकों का आशीर्वाद चाहता हूँ. ५ साल से तमन्ना थी, जो मेरे जैसा आलसी प्राणी आज शुरू कर पाया। अब अगली पोस्ट जल्द डालने का प्रयास करूँगा.
तब तक आप घूमते रहें और बस घूमते रहें !
१९ वीं सदी के पहले दशक में यू पी (आज का उत्तरप्रदेश तब का यूनाइटेड प्रोविंस या संयुक्त प्रांत) में पाठ्यक्रम में उर्दू कि प्राइमरी क्लास की पाठ्यपुस्तक गुलिस्ताँ-वोस्ताँ में एक पाठ में साजिंदा-वाजिंदा में कन्वर्सेशन था--
"सैर कर दुनियाँ की गाफिल जिंदगानी फिर कहाँ ?
जिंदगानी गर रही तो नौजवानी फिर कहाँ !"